Wednesday 1 October 2014


मोहनदास करमचंद गांधी परम पुजारी अहिंसा के

सुधांशु द्विवेदी

दे दी हमें आजादी बिना खड्ग, बिना ढाल। साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल। यह भावपूर्ण पंक्तियां उन महान् सख्शियत के व्यक्तित्व पर केन्द्रित हैं जिन्होंने सत्य और अहिंसा को सामाजिक क्रांति का आजीवन आधार बनाया तथा अपने संकल्पपूर्ण सफरनामे में दुविधा और सुविधा से मुक्त रहकर देशवासियों को एकता के सूत्र में पिरोया। हम बात कर रहे हैं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की, जिन पर यह पंक्तियां सटीक बैठती हैं कि कोई चलता पद चिन्हों पर तो कोई पद चिन्ह बनाता है। राष्ट्रवाद और राष्ट्रधर्म से जिनका जन्म-जन्म का नाता है। राष्ट्रपिता  महात्मा गांधी अहिंसक आंदोलन के ऐसे ही अप्रतिम योद्धा थे। जिनकी बेजोड़ संगठनात्मक क्षमता, त्यागमय जीवन, शुचिता एवं सत्य आधारित जीवन शैली ने अंगे्रजी हुकूमत को घुटने टेकने के लिये मजबूर कर दिया तथा 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ।  भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सत्य और अहिंसा का उद्घोष कर आंदोलन की धार को और पैनी करने वाले महात्मा गांधी के अदभुत व्यक्तित्व से पूरा विश्व वाकिफ है तथा महात्मा गांधी को शहस्त्राब्दी पुरुष कहा गया है। उन्होंनें स्वतन्त्र भारत के पुनर्निर्माण के लिए रामराज्य का स्वप्न देखा था। गांधी जी कहते थे कि नैतिक और सामाजिक उत्थान को ही हमने अहिंसा का नाम दिया है। यह स्वराज्य का चतुष्कोण है। इनमें से एक भी अगर सच्चा नहीं है तो हमारे स्वराज्य की सूरत ही बदल जाती है। मैं राजनीतिक और आर्थिक स्वतन्त्रता की बात करता हँ। राजनीतिक स्वतन्त्रता से मेरा मतलब किसी देश की शासन प्रणाली की नकल से नहीं है। उनकी शासन प्रणाली अपनी-अपनी प्रतिभा के अनुसार होगी, परन्तु स्वराज्य में हमारी शासन प्रणाली हमारी अपनी प्रतिभा पर आधारित होगी। मैंने उसका वर्णन ‘रामराज्य’ शब्द के द्वारा किया है। अर्थात विशुद्ध राजनीति के आधार पर स्थापित तन्त्र। गांधी जी यह भी कहते थे कि मेरे स्वराज्य को लोग अच्छी तरह समझ लें, भूल न करें। संक्षेप में वह यह है कि विदेशी सत्ता से सम्पूर्ण मुक्ति और साथ ही सम्पूर्ण आर्थिक स्वतंत्रता। इस प्रकार एक सिरे पर आर्थिक स्वतंत्रता है और दूसरे सिरे पर राजनीतिक स्वतंत्रता, परन्तु इसके दो सिरे और भी हैं। इनमें से एक है नैतिक व सामाजिक और दूसरा धर्म। इसमें हिन्दू धर्म, इस्लाम, ईसाई वगैरह आ जाते हैं। परन्तु एक जो इन सबसे उपर है, इसे आप सत्य का नाम दें सकते हैं। सत्य यानि कि केवल प्रासंगिक ईमानदारी नहीं बल्कि वह परम सत्य जो सर्व व्यापक है और उत्पत्ति व लय से परे है।  मूलरूप से गांधी जी की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था करुणा, प्रेम, नैतिकता, धार्मिकता व ईश्वरीय भावना पर आधारित है। उन्होंनें नरसेवा को ही नारायण सेवा मानकर दलितोद्धार एवं दरिद्रोद्धार को अपने जीवन का सर्वोपरि लक्ष्य बनाया। वे शोषणमुक्त, समतायुक्त, ममतामय,  स्वावलम्बी, परस्पर पूरक व परस्पर पोषक समाज के प्रबल हिमायती थे। उनका मानना था कि राजसत्ता और अर्थसत्ता के विकेन्द्रीकरण के बिना आम आदमी को सच्चे लोकतन्त्र की अनुभूति नहीं हो सकती तथा लोकतंत्र का आलोक जन-जन तक व घर-घर तक नहीं पहुंच सकता। सत्ता का केन्द्रीयकरण लोकतन्त्र की प्रकृति से मेल नहीं खाता तथा यह तानाशाही का ही दूसरा रूप है। उनकी ग्राम-स्वराज्य की कल्पना भी राजसत्ता के विकेन्द्रीकरण पर आधारित है, जो देश में पंचायती राज व्यवस्था के रूप में राजनीति को लोकनीति का स्वरूप दे रही है। गांधी जी का यह भी कहना था कि जीवन की जिन आवश्यकताओं का उपभोग राजा और अमीर लोग करते हैं, वही उन्हें भी सुलभ होना चाहिए। इसमें फर्क के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। ऐसे राज्य में जाति-धर्म के भेदों का कोई स्थान नहीं हो सकता। उस पर धनवानों और अशिक्षितों का एकाधिपत्य नहीं होगा। वह स्वराज्य सबके कल्याण के लिए होगा। लेकिन यह स्वराज्य प्राप्त करने का एक निश्चित रास्ता है।  इसे समझाने के लिए वे कहते थे- ध्येयवादी जी


वन के चार तत्व होते हैं- साधक, साधन, साधना और साध्य। साध्य का अर्थ लक्ष्य या ध्येय से है। मान लीजिए, यदि किसी समय हमारा लक्ष्य धन कमाना है, तो धन कमाने के भी कई तरीके हो सकते हैं। यह धन चोरी करके भी प्राप्त किया जा सकता है और पुरूषार्थ एवं पराक्रम से भी, लेकिन पुरूषार्थ व पराक्रम से प्राप्त धन ‘पवित्र धन’ कहा जायेगा और चोरी से प्राप्त धन ‘चोरी का धन’। ऐसी स्थिति में साध्य पवित्र नहीं रह जायेगा। इसलिए साध्य की पवित्रता के लिए यह आवश्यक है कि साधन, साधक व साधना तीनों पवित्र हों। किसी एक के पवित्र होने से काम नहीं चलेगा।  लेकिन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचार व जीवनदर्शन तथा मौजूदा परिस्थितियों पर दृष्टिपात करें तो कई मालों में निराशा भी हाथ लगती है। आज लोकतंत्र को लूटतंत्र, झूठतंत्र व जोकतंत्र बनाने की कोशिशें हो रही हैं। गांधीवाद पर्याय नहीं बल्कि प्रतीक मात्र बनकर रह गया है।

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