Saturday 31 May 2014

कालाधन वापस लाने के मार्ग में हैं कई रुकावटें

सुधांशु द्विवेदी
लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

केन्द्र की मौजूदा सरकार द्वारा विदेशों में जमा भारतीयों के काला धन का पता लगाने और उसे वापस लाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए एसआईटी का गठन किया गया है, ऐसे में देशवासियों के मन में यह उम्मीद तो जगी है कि इस मामले में जल्द ही कोई उत्साहजनक नतीजा सामने आयेगा लेकिन वास्तव में यदि देखा जाये तो इस संपूर्ण कवायद के रास्ते में कई रुकावटें हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा कालाधन के संदर्भ में जारी आदेशों के परिपालन में केन्द्र सरकार द्वारा एसआईटी के गठन को एक महत्वपूर्ण व उत्साहजनक कदम माना जा सकता है लेकिन कालाधन वापस लाने की कवायद को किसी परिणामी मुकाम तक पहुंचाने के लिये यह बेहद जरूरी होगा कि इसके लिये देश में व्यापक राजनीतिक आम सहमति तैयार की जाये। क्यों कि राष्ट्रहित में किसी सकारात्मक पहल के कामयाब होने के मार्ग में राजनीतिक दलों व उनके नेताओं की सहूलियत व सुविधापरस्त प्रवृत्ति सबसे बड़ी बाधा बनती है। सरकार द्वारा ब्लैक मनी की जांच के लिए स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम (एसआईटी) बनाने का ऐलान किये जाने के बाद देशवासियों में कालाधन के संदर्भ में उत्सुकता तो जागृत हुई है तथा लोगों को लग रहा है कि यदि कालाधन वापस लाने की कवायद पूरी होती है तो इससे भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में भी मदद मिलेगी।  स्विस प्रशासन को पूर्व वित्त मंत्री पी.चिदंबरम द्वारा  कालाधन को लेकर चार चि_ियां लिखी गई थीं । तब स्विस प्रशासन की ओर से जबाव दिया गया था कि स्विस प्रशासन ने फैसला किया है कि 2011 के बाद के भारतीयों के खाते के बारे में सूचना दी जाएगी। वह भी इस शर्त पर कि भारत सरकार को लिखित रूप से यह आग्रह करना होगा कि उसे इसकी सूचना दी जाये। इसके साथ ही यदि किसी भी देश की सरकार को किसी भी व्यक्ति के बारे में संदेह है कि उसका खाता स्विस बैंक में है तो सरकार को पहले उस व्यक्ति के विरुद्ध आपराधिक प्रकरण पंजीबद्ध करना होगा, तभी उस व्यक्ति के बारे में कोई जानकारी दी जा सकेगी। जर्मनी द्वारा हाल ही में विदेशी बैंकों में जमा कालाधन को लेकर कुछ जानकारियां जमा की गई हैं। केन्द्र सरकार द्वारा एसआईटी का प्रमुख सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज एम.वी. शाह को बनाया गया है जबकि सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व जज अरिजित पासायत एसआईटी के वाइस चेयरमैन होंगे। समस्या यह है कि अभी तक किसी भी विदेशी या भारतीय एजेंसी के पास यह पुख्ता जानकारी नहीं है कि भारतीयों की कितना कालाधन  विदेशों में जमा है। केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार एसआईटी का गठन किया है। केन्द्र सरकार द्वारा गठित टीम यह पता लगाएगी कि भारत में कितना कालाधन है तथा कितने का प्रवाह विदेशों में हो रहा है। हवाला कारोबार के जरिये भी कालाधन का प्रवाह विदेशों में होता है। महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि एसआईटी को किस हद तक अधिकार संपन्न बनाया जाता है। क्या एसआईटी को किसी के खिलाफ वित्तीय आपराधिक मामला पंजीबद्ध करने, सरकार की इजाजत के बगैर दूसरे देशों की जांच एजेंसियों के साथ सीधे वाद-संवाद करने , उनसे ब्योरा प्राप्त करने तथा उस पर कार्रवाई करने का अधिकार से भी एसआईटी को परिपूर्ण बनाया जायेगा। एक आकलन के अनुसार भारत और दूसरे देशों में कहां-कहां और कितना कालाधन जमा है यह पता लगाने  के लिए छह महीने लग सकते हैं। इस लंबी चलने वाली प्रक्रिया का तात्पर्य यह है कि एसआईटी पहले तो कालाधन से जुड़े आंकड़ों को इकट्ठा करेगी, इसके पश्चात  इसकी रिपोर्ट सरकार को सौंपी जाएगी और फिर इसको किस तरह से देश में वापस लाया जाए, इसके तरीकों पर विचार विमर्श किया जायेगा । ऐसा कहा जा रहा है कि भारत में दो तरीको से कालेधन को वापस ला सकता है। पहला यह कि उसे इन लोगों के खिलाफ वित्तीय आपराधिक प्रकरण पंजीबद्ध करना होगा और साबित करना होगा कि यह कालाधन है यानी इस पर टैक्स की अदायगी नहीं की गई है तथा दूसरा उन लोगों के नामों को भी  सार्वजनिक करना होगा तथा  स्विस प्रशासन को तकनीकी रूप से यह बताना अनिवार्य होगा कि जो धन उसके यहां जमा किया गया है, वह कालाधन के दायरे में आता है। इतनी प्रक्रिया पूरी होने के बाद सरकार को यह धन जब्त करने का अधिकार होगा। ऐस कहा जा रहा है कि अमेरिका तक को कालाधन विरोधी इस मुहिम में सफलता अर्जित नहीं हो पाई है तो फिर भारत के लिये तो कालाधन वापस लाना और भी अधिक मुश्किल व चुनौतीभरा होगा। यह बात सही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को कमजोर करने में कालाधन की बड़ी भूमिका है। लेकिन राजनेताओं और सरकार ने समय रहते इस स्थिति से काई सबक नहीं लिया, कालाधन के मुद्दे पर देश में सिर्फ राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का दौर ही चलता रहा है तथा राजनीतिक दलों द्वारा इस मुद्दे पर निहायत राजनीतिक दृष्टिकोण अपनाते हुए इसे चुनावी लाभ का अधार भी बनाया जाता रहा है। ऐसा कहा गया है कि  भारत से केवल 2010 में 1.6 बिलियन डालर पैसा बाहर गया। वहीं एक दशक की बात की जाये तो 123 बिलियन डालर पैसा कालेधन के रूप में देश से निकल गया। इस दरम्यान सबसे ज्यादा कालाधन बाहर जाने वाले देशों की सूची में भारत का आठवां स्थान  है। चीन, मैक्सिको, मलेशिया, सउदी अरब, रूस, फिलीपिन्स और नाईजीरिया के बाद सबसे ज्यादा पैसों का प्रवाह हमारे ही देश में है। दुर्भाग्यवश  एक ओर जहां भारत में विकास प्रक्रिया निरंतर आगे बढ़ रही है वहीं दूसरी ओर भारत से पैसों की बड़ी मात्रा कालेधन के रूप में विदेशों में पहुंच गई है। 


Friday 30 May 2014

औचित्यहीन है धारा 370 का विवाद

सुधांशु द्विवेदी
लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने की प्रक्रिया व विचार विमर्श शुरू किये जाने संबंधी प्रधानमंत्र कार्यालय में राज्यमंत्री डॉ. जीतेन्द्र सिंह के बयान के बाद देश के राजनीतिक गलियारों में तीखी प्रतिक्रिया का दौर शुरू हो गया है। मौजूदा कामकाज संभालने के पहले ही दिन केन्द्र सरकार के मंत्री ने अनुच्छेद 370 को लेकर विवादित बयान दे दिया। उसके बाद इस मुद्दे पर विवाद बढ़ गया है।  राज्य मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह ने  कहा था कि सभी संबंधित पक्षों से बातचीत शुरू हो गई है और हम ऐसे लोगों को विश्वस्त करने की कोशिश करेंगे, जो अब तक इसके लिए तैयार नहीं हैं। हालांकि बाद में जीतेंद्र सिंह ने सफाई देते हुए कहा कि उनके बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है। उन्होंने कहा कि मैं साफ करना चाहता हूं कि मीडिया में अनुच्छेद 370 के बारे में जो खबरें दिखाई जा रही हैं, उनमें मेरा बयान गलत तरह से पेश किया जा रहा है। इस बारे में जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। उन्होंने ट्वीट पर कहा है कि जम्मू कश्मीर और शेष भारत के बीच एकमात्र संपर्क अनुच्छेद 370 है और इसे हटाने की बात करना न सिर्फ कम जानकारी का परिचायक है बल्कि गैरजिम्मेदाराना भी है। अब्दुल्ला का कहना है कि नए राज्य मंत्री कहते हैं कि अनुच्छेद 370 को हटाने की प्रक्रिया व विचार-विमर्श शुरू हो गया है। वाह! बहुत तेज शुरुआत है। पता नहीं कौन बात कर रहा है। अब्दुल्ला ने तो यह भी कहा है कि अनुच्छेद 370 को हटाने का असर कश्मीर के भारत से अलग हो जाने तक भी हो सकता है। उन्होंने कहा कि मेरे इस ट्वीट को सेव कर लीजिए। जब यह सरकार एक भूली-बिसरी याद बन चुकी होगी, तब या तो धारा 370 मौजूद रहेगी या जम्मू कश्मीर भारत का अंग नहीं रहेगा। उधर अपने पहले बयान में जितेंद्र सिंह ने कहा था कि अगर बहस ही नहीं होगी तो जो लोग समझने को तैयार नहीं हैं, उन्हें कैसे बताया जाएगा कि अनुच्छेद 370 की वजह से उन्हें क्या कुछ नुकसान हो रहे हैं। उनका कहना था कि 370 भौतिक से ज्यादा एक मनोवैज्ञानिक बाधा है और सरकार हर पक्ष के साथ विचार-विमर्श के लिए तैयार है। उन्होंने तर्क दिया कि बीजेपी ने जम्मू-कश्मीर की छह में से आधी सीटें जीती हैं। उन्होंने कहा कि हमें आधी सीटें मिली हैं। अगर आप वोटर के लिहाज से सोचें तो 50 फीसदी वोटर हमारे साथ हैं यानी वे बीजेपी के अजेंडे का समर्थन करते हैं। हालाकि अब विवाद बढऩे पर जीतेन्द्र सिंह अपने बयान से पीछे हट गए हैं तथा उनका कहना है कि उनके बयान को तोड़-मरोडक़र प्रस्तुत किया गया है लेकिन यदि वास्तविक तौर पर देखा जाये तो कश्मीर सहित अन्य विवादित मुद्दों को लेकर सरकार के दृष्टिकोण में काफी विरोधाभास नजर आ रहा है। सरकार द्वारा एक तरफ तो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अपने शपथ समारोह का आतिथ्य प्रदान करके दोनों देशों के बीच संबंध बेहतर बनाने व कश्मीर समस्या के शांतिपूर्ण व स्थायी समाधान की कवायद की जा रही हैं वहीं धारा 370 पर हड़बड़ीपूर्ण रुख अख्तियार करके कश्मीर में अनावश्यक तनाव व सियासी हलचल को बढ़ावा देने की कोशिश का जा रही है। केन्द्रीय राज्य मंत्री ने भले ही अपने विवादित बयान से पल्ला झाड़ लिया हो लेकिन इससे पहले उनके द्वारा उपरोक्त बयान देने से वा-प्रतिवाद की पृष्ठभूमि तो तैयार हो ही गई। केन्द्र की नई सरकार द्वारा कामकाज संभालने के साथ ही उसका उद्देश्य देश व देशवासियों की बेहतरी होना चाहिये था ताकि देशवासियों की तमाम ज्वलंत समस्याओं के समाधान का मार्ग प्रशस्त होता लेकिन प्रारंभिक दौर में ही संविधान की धारा 370 जैसे संवेदनशील विषय को बहस का मुद्दा बनाना कहीं न कहीं सरकार की जल्दबाजी को ही परिलक्षित करता है। यथा सर्व विदित है कि धारा 370 कश्मीर, कश्मीरी और कश्मीरियत को भारत से जोड़े रखने का प्रमुख आधार है तथा इस मुद्दे पर कोई भी नीतिगत निर्णय लेने से पहले व्यापक राजनीतिक आम सहमति जरूरी होगी। ताकि इस मुद्दे पर सरकार पर जन भावनाओं की उपेक्षा का आरोप नहीं लगे साथ ही सरकार के किसी भी कदम से देश की एकता व अखंडता पर भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़े। संविधान की धारा 370 के मुद्दे पर कोई भी निर्णय या विचार विमर्श की प्रक्रिया आगे बढ़ाते समय जम्मू कश्मीर में प्रभावशाली राजनीतिक दलों व उनके नेताओं को विश्वास में लिया जाना बेहद जरूरी होगा तथा इस मुद्दे पर अनावश्यक विवाद खड़ा करने से किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो पायेगा। 

कश्मीरी पंडितों के उत्थान व कल्याण की बढ़ी उम्मीद

सुधांशु द्विवेदी
लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कार्यभार संभालते ही समीक्षा बैठक में सबसे पहले कश्मीरी पंडितों पर चर्चा की है। ऐसा लग रहा है कि सरकार की प्राथमिकता में पंडितों को फिर से कश्मीर में बसाना और उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित करने का मुद्दा प्रमुखता के साथ शामिल है। यदि ऐसा हो पाता है तो यह कश्मीरी पंडितों के लिये बड़ी सौगात ही मानी जायेगी।  समीक्षा बैठक में आतंरिक सुरक्षा के नए ब्लू प्रिंट पर चर्चा हुई है। इस दौरान राजनाथ ने दशकों से विस्थापित कश्मीरी पंडितों को फिर से बसाने के लिए ठोस नीतियां बनाने पर जोर दिया। गृह मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ लगभग तीन घंटे चली बैठक में राजनाथ ने आंतरिक सुरक्षा को सबसे अहम बताते हुए नया ब्लूप्रिंट तैयार करने का निर्देश भी दिया है। राजनाथ ने आंतरिक सुरक्षा के साथ-साथ नक्सल, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर की समस्या पर अलग से विस्तृत प्रजेंटेशन तैयार करने का भी निर्देश दिया। केन्द्रीय गृहमंत्री की ताजा पहल से यह भी माना जा सकता है कि सरकार के एजेंडे में आतंकवाद के कारण दरबदर हुए कश्मीरी पंडितों को फिर से घाटी में बसाने की इच्छाशक्ति प्राथमिकता के आधार पर शामिल  है। सरकार कश्मीरी पंडितों की सुरक्षा, रहने के लिए घर, रोजगार और उनके बच्चों की शिक्षा के लिए विशेष प्रबंध करेगी और उनकी आर्थिक मदद की प्रतिबद्धता भी पहले ही जता चुकी है। यहां यह कहना आवश्यक होगा कि कश्मीरी पंडितों केपुनर्वापसी की बातें तो लंबे अरसे से की जाती रही हैं, लेकिन इसके लिए अभी तक ठोस कदम नहीं उठाया जा सका है। कश्मीर में होने वाले रक्तपात व अन्य परिस्थितिजन्य कारणों के चलते कश्मीरी पंडितों को लंबे समय से संकटमय हालातों का सामना करना पड़ता रहा है तथा स्थिति के सामान्य होने की संभावना नगण्य होते देख कश्मीरी पंडित कश्मीर छोडक़र देश के अन्य हिस्सों में पलायन के लिये विवश होते रहे हैं। सच कहें तो कश्मीर के पंडित एक ऐसा समुदाय बनने के लिये विवश होते रहे हैं जो बिना किसी गलती के ही अपने घर से बेघर हो गये हैं। वर्षों से कश्मीर में रह रहे कश्मीरी पंडितों को 1990 में आतंकवाद की वजह से घाटी छोडऩी पड़ी थी या उन्हें जबरन निकाल दिया गया था। कश्मीरी पंडितों पर कश्मीर में बड़े पैमाने पर अत्याचार किया गया। हत्या जैसी गंभीर वारदातें भी सामने आईं। यह दौर कई वर्षो तक चला, लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा कभी भी उन्हें सुरक्षा प्रदान करने में रूचि नहीं दिखाई गई। मौजूदा समय में भी कश्मीरी पंडित जम्मू और दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में बदहाल अवस्था में रहने के लिये मजबूर हैं। आतंकियों के निशाने पर कश्मीरी पंडित रहे, जिससे उन्हें अपनी पवित्र भूमि से बेदखल होना पड़ा था और उनके पास अपने ही देश में शरणार्थियों जैसा जीवन बिताने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी के लिए विभिन्न केंद्रीय व राज्य सरकारों द्वारा लगातार प्रयास करने का दावा करते हुए कई पैकेजों की घोषणा भी की जाती रही है लेकिन सार्थक नतीजे सामने नहीं आये। विस्थापित कश्मीरी पंडितों के संगठन पनुन कश्मीर के नेता  कश्मीरी पंडितों की कश्मीर में वापसी के लिये लगातार प्रयास करते रहे हैं लेकिन राजनेताओं की संवेदनहीनता व दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव के चलते उनके प्रयासों को कामयाबी नहीं मिल पाई वहीं जम्मू कश्मीर के राजनीतिक समीकरण भी कश्मीरी पंडितों की कश्मीर में वापसी व उनकी समस्याओं के निराकरण के मार्ग में बड़ी बाधा बनते रहे हैं। विस्थापन का दंश झेलने के चलते कश्मीर की सियासत में कश्मीरी पंडितों की कोई निर्णायक भूमिका नहीं रह गई है। आंकड़े बताते हैं कि कश्मीर से 1989 और 90 में लगभग पांच लाख कश्मीरी पंडितों का विस्थापन हुआ था जबकि सरकार का दावा रहा है कि यह संख्या एक लाख से कम थी। विस्थापित कश्मीरी पंडित जम्मू व ऊधमपुर के विस्थापित शिविरों में भी रह रहे हैं। वहीं कई विस्थापित दिल्ली व देश के अन्य शहरों में शरण लिए हुए हैं। सच्चाई तो यह है कि कश्मीरी पंडितों को घाटी में बसाने लायक जिस माहौल की आवश्यकता है उसका वर्षों से अभाव रहा है वहीं पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा कश्मीरी पंडितों की वापसी के लिए घोषित पैकेज भी नौकरशाही की भेंट चढ़ गया। इस प्रकार सवाल यह उठता रहा है कि विपन्नता व विस्थापन का दंश झेलने के लिये मजबूर कश्मीरी पंडित अपनी सुरक्षा व आत्म सम्मान की लड़ाई कैसे लड़ सकते हैं।  केन्द्र की मौजूदा सरकार द्वारा विस्थापित कश्मीरी पंडितों की कश्मीर में फिर वापसी व उनके पुनर्वास व कल्याण की दिशा में जो कवायद की जा रही है उसे स्वागत योग्य तो माना जा सकता है लेकिन इन प्रयासों की सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब सरकार की सोच कार्य रूप में परणित हो तथा विस्थापित कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास व उनके आर्थिक व सामजिक कल्याण की दिशा में किये जा रहे प्रयासों के ठोस नतीजे सामने आयें। 

Thursday 8 May 2014

चुनाव परिणाम को लेकर सशंकित हैं राजनीतिक दल

सुधांशु द्विवेदी

लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

देश के मौजूदा लोकसभा चुनाव के लिये अब जब कि मतदान का एक ही चरण शेष है तथा आगामी 16 मई को चुनाव परिणाम घोषित होने के साथ यह भी तय हो जायेगा कि लोकतंत्र के भाग्य विधाता जनता जनार्दन ने किस राजनीतिक दल या गठबंधन को सत्ता का ताज सौंपा है तथा किन राजनीतिक दलों व उनके क्षत्रपों को सत्तारोहण के लिये अभी और इंतजार व संघर्ष करना पड़ेगा, इस बीच राजनीतिक दलों व उनके नेताओं का चुनाव परिणामों को लेकर सशंकित भाव भी स्पष्ट रूप दे दृष्टिगोचर हो रहा है। यही कारण है कि राजनीतिक दल व उनके वरिष्ठ रणनीतिकार चुनाव परिणाम घोषित होने से पहले ही भावी सियासी संभावनाओं तथा चुनाव बाद गठबंधन व आवश्यकता पडऩे पर समर्थन देने या लेने जैसे विषयों पर गंभीर चिंतन के साथ ही तमाम विकल्पों पर दृष्टिपात भी कर रहे हैं। चाहे देश में सत्ताधारी यूपीए गठबंधन की मुखिया कांग्रेस पार्टी हो या मुख्य विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी। समाजवादी पार्टी हो या बहुजन समाज पार्टी, नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड हो या ममता बैनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस। दक्षिण भारत की क्षेत्रीय पार्टियां हों या वामपंथी दल। सभी राजनीतिक दल चुनाव बाद की भावी राजनीतिक संभावनाओं को ही सत्ता निर्धारण या सत्तारोहण में अपनी भूमिका का आधार मान रहे हैं तथा इस बात की आशंका सभी दलों को है कि यदि किसी भी पार्टी या गठबंधन को लोकसभा चुनाव में बहुमत नहीं मिला तो फिर वह किस भूमिका में होंगे। लोकसभा चुनाव के उत्तरार्ध में अमेठी व रायबरेली में राहुल गांधी व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के चुनाव प्रचार अभियान में अग्रणी भूमिका निभाने वाली प्रियंका गांधी ने कहा है कि इस लोकसभा चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिलेगा। वहीं राहुल गांधी का कहना है कि कांग्रेस पार्टी को लोकसभा चुनाव के यूपीए के बाहर के किसी भी राजनीतिक दल को समर्थन देने या उससे समर्थन लेने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी तथा कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए गठबंधन को पूरे नंबर मिलने के साथ ही एक बार फिर इसी गठबंधन की सत्ता में वापसी होगी। कांग्रेस नेताओं एवं कार्यकर्ताओं को एकजुट तथा उत्साहित रखने के लिये राहुल गांधी का यह बयान महत्वपूर्ण है लेकिन पार्टी के अंदर विभिन्न स्तरों पर जिस तरह से संभावित चुनाव परिणामों को लेकर चर्चा चल रही है तथा पिछले दिनों केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद तथा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण की ओर से चुनाव बाद कांग्रेस द्वारा तीसरे मोर्चे को समर्थन देने की बात कही गई उससे स्पष्ट है कि कांग्रेस नेता भी यह मान रहे हैं कि पार्टी को 2009 के लोकसभा चुनाव की अपेक्षा इस लोकसभा चुनाव में कुछ कम सीटों पर ही संतोष करना पड़ सकता है। यही कारण है कि चुनाव बाद की राजनीतिक संभावनाओं को ध्यान में रखकर अभी से नये राजनीतिक दलों को यूपीए में शामिल करने के लिये उनका मन टटोलने की कोशिश की जा रही है। अभी कुछ दिनों पूर्व ही कांग्रेस पार्टी के बड़े रणनीतकार व रक्षामंत्री एके एंटनी ने केरल में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि व्यापक राष्ट्रहित में धर्म निरपेक्ष विचारधारा को मजबूत बनाते हुए सेक्युलर पार्टियों को कांग्रेस का सहयोग करना चाहिये तथा वामपंथी दलों से समर्थन लेने में कांग्रेस को कोई गुरेज नहीं होगा। चुनाव परिणामों को लेकर भारतीय जनता पार्टी भी पूरी तरह आश्वस्त नजर नहीं आ रही है। पार्टी को लगता है कि यदि राजग गठबंधन लोकसभा चुनाव में 272 के जादुई आंकड़े तक नहीं पहुंच पाया तो उसे सत्ता हासिल करने के लिये राजग के बाहर के दलों के समर्थन व सहयोग की जरूरत पड़ेगी। राजग में भाजपा के अलावा दो ही बड़े घटक दल हैं, एक तो महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना और दूसरा पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व वाला सिरोमणि अकाली दल। भाजपा ने तमिलनाडु में इस बार वहां के कुछ छोटे दलों के साथ गठबंधन  करके चुनाव लड़ा है वहीं आंध्रप्रदेश में पार्टी का गठबंधन चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व वाली तेलगू देशम पार्टी से है। बिहार में पार्टी ने राम विलास पासवान के नेतृत्व वाली लोक जन शक्ति पार्टी के साथ गठबंधन किया है। पार्टी को यदि अपने इन सहयोगी दलों के साथ मिलकर लोकसभा चुनाव में करिश्माई जीत नहीं मिल पाती है तथा भाजपा के नेतृत्व वाला राजग बहुमत हासिल करने में विफल रहता है तो केन्द्र की सत्ता में अपनी ताजपोशी सुनिश्चित करने के लिये पार्टी को नए सहयोगी ढूंढऩे ही होंगे। बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती लोकसभा चुनाव में उत्तरप्रदेश में अपनी पार्टी के बेहतरीन प्रदर्शन का दावा कर रही हैं लेकिन इन दावों की हकीकत का पता 16 मई को ही चल पायेगा। क्यों कि 2009 के लोकसभा चुनाव में भी मायावती के तमाम दावों के बावजूद बहुजन समाज पार्टी को 20 सीटें ही हासिल हो पाई थीं। उत्तरप्रदेश में लोकसभा सीटें कम होने का भय तो समाजवादी पार्टी को भी है, ऐसा लगता है कि बलात्कार को लेकर मुलायम सिंह का विवादित बयान व सैफई महोत्सव जैसे अन्य विवादित मामले कहीं समाजवादी पार्टी की सियासी संभावनाओं पर भारी न पड़ जायें। हालाकि सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव इस बात से साफ इंकार करते हैं उनका कहना है कि उत्तरप्रदेश में उनकी पार्टी लोक सभा की सर्वाधिक सीटें जीतेगी। मुलायम के पुत्र व उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी ऐसा ही दावा कर रहे हैं। उनका कहना है कि लोकसभा चुनाव के पिछले चरणों में उत्तरप्रदेश के मतदाताओं द्वारा उनकी पार्टी के पक्ष में किये गये जबर्दश्त मतदान से विपक्षी दलों में बौखलाहट बढ़ गई है, यही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी उत्तरप्रदेश में बूथ कैप्चरिंग का आरोप लगा रही है।  बिहार राज्य में लोकसभा की 40 सीटें हैं जहां इस बार त्रिकोणीय मुकाबले के आसार साफ-साफ नजर आ रहे हैं। राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जनतादल यूनाइटेड को इस बार मैदान में अकेले ही चुनावी दम दिखाना पड़ रहा है। वहीं राष्ट्रीय जनता दल व कांग्रेस का चुनावी गठबंधन इस बार बड़ा करिश्मा कर जाये तो अतिसंयोक्ति नहीं होगी। क्यों कि राज्य की नीतीश सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी माहौल को भुनाने की कोशिश लालू यादव के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनता दल-कांग्रेस गठबंधन द्वारा लगातार की जा रही है वहीं वह मतदाताओं को भाजपा के प्रति भी आगाह कर रहे हैं। अभी पिछले दिनों ही चुनाव प्रचार के दौरान राबड़ी देवी की गाड़ी की विवादास्पद ढंग से तलाशी लिये जाने पर लालू यादव काफी भडक़ गये थे तथा राबड़ी देवी ने भी उनकी पार्टी की बढ़ती लोकप्रियता और मिल रहे अपार जनसमर्थन के चलते विरोधियों द्वारा उनके खिलाफ साजिश रचे जाने का आरोप लगाया था। चुनाव परिणाम को लेकर वामपंथी दल भी उत्साहित नजर नहीं आ रहे हैं। सीपीआई नेता एबी वर्धन ने हाल ही में संभावना जताई है कि उनकी पार्टी का इस लोकसभा चुनाव में प्रदर्शन पिछले चुनाव की अपेक्षा कमतर रह सकता है तथा उन्होंने यह भी कहा है कि भाजपा को केन्द्रीय सत्ता से दूर रखने के लिये उनकी पार्टी को ममता बैनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस से समर्थन लेने में भी कोई परहेज नहीं होगा। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि देश के राजनीतिक दल वर्तमान लोकसभा निर्वाचन के चुनाव परिणाम को लेकर आश्वस्त नहीं हैं तथा सभी को बेसब्री के साथ मतगणना दिवस 16 मई का इंतजार है।

देशहित में नहीं है जातिवादी राजनीति

सुधांशु द्विवेदी

लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

राजनेताओं द्वारा विरोधियों पर जात पांत की राजनीति किये जाने की तोहमत आये दिन मढ़ी जाती रहती है लेकिन असल में यदि देखा जाये तो जातिवादी मानसिकता लगभग सभी राजनीतिक दलों में हावी है। देश को जातिवाद के भंवरजाल से मुक्त कराने के दावे और वादे भी बढ़चढक़र किये जाते हैं लेकिन विडंबना यह है कि आजादी प्राप्ति के 66 साल व्यतीत हो जाने के बावजूद राजनीतिक दल एवं नेता जातिवाद की संकीर्णता से बाहर नहीं निकल पाये हैं। चाहे देश का मौजूदा लोकसभा चुनाव हो या फिर समय-समय पर होने वाले विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनाव अथवा चाहे हम किसी भी राज्य के स्थानीय निकायों के निर्वाचन की ही बात करें। जातिवाद की संक्रामक महामारी देश की राजनीतिक तंत्र में इतनी गहराई तक समाहित हो गई है कि कोई भी राजनीतिक दल जातिवाद की राजनीति से मुक्त नहीं है। इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि देश के संविधान में सभी भारतीय नागरिकों को एक समान मानने तथा समता एवं समरसता की अवधारणा को मजबूत बनाये जाने की प्रतिबद्धता के बावजूद भारतीय समाज जातिवाद की बेडिय़ों से अभी तक जकड़ा ही हुआ है साथ ही राजनीतिक दलों की संगठनात्मक, सृजनात्मक व चुनावी गतिविधियां भी पूरी तरह जातिवाद के इर्द गिर्द ही केन्द्रित होकर रह गई हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि देश की राजनीतिक व्यवस्था में अग्रणी भूमिका निभाने वाले राजनीतिक दल एवं उनके नेताओं द्वारा देश के सभी नागरिकों के सम्मानजनक जीवन जीने के सपने एवं देश के संविधान की अवधारणा को मूर्त रूप देने में अपना योगदान किस हद तक सुनिश्चित कर पायेंगे। राजनीतिक दलों की संगठनात्मक गतिविधियों से लेकर चुनावों में टिकट वितरण तक में जातीय समीकरणों का विशेष ध्यान रखा जाता है, फिर चाहे संबंधित राजनीतिक दल पर जाति विशेष के तुष्टिकरण या उपेक्षा का ही आरोप क्यों न लगे तथा राजनीतिक दल के संगठनात्मक स्वरूप या टिकट वितरण को लेकर व्यापक जन असंतोष की स्थिति भी क्यों न निर्मित हो जाये। राजनीतिक दलों को ऐसे लोक सरोकारों से कोई विशेष वास्ता नहीं रहता तथा वह केवल राजनीतिक सफलता को ही अपना एकसूत्रीय उद्देश्य मानते हैं। यह भी एक बड़ी विडंबना है कि राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं ने चाहे जितनी राजनीतिक प्रतिष्ठा व ख्याति अर्जित कर ली हो लेकिन उनका नैतिक पक्ष दुर्बलता की चरम सीमा पर पहुंच चुका नजर आ रहा है। कम से कम वर्तमान हालात पर दृष्टिपात करने पर तो ऐसा ही प्रतीत होता है। अब उत्तरप्रदेश में सत्ताधारी समाजवादी पार्टी के नेताओं व पूर्व मुख्यमंत्री मायावती व उनकी पार्टी बहुजन समाज पार्टी की ही बात करें तो ऐसा लगता है कि बसपा प्रमुख मायावती व सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह के बीच पारस्परिक व्यक्तिगत शत्रुता की स्थिति अभी भी बरकरार है तथा वह एक दूसरे को नीचा दिखाने तथा सिर्फ राजनीतिक ही नहीं बल्कि एक दूसरे को व्यक्तिगत छति पहुंचाने के लिये हमेशा उतावले नजर आते हैं। मौजूदा लोकसभा चुनाव के दौरान दोनों के बीच राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में आगे निकलने की होड़ लगती तो उसे तर्क संगत भी माना जा सकता था लेकिन एक दूसरे के खिलाफ जिस तरह से जातिसूचक टिप्पणी करके अन्य विवादास्पद बयानों के माध्यम से भी मर्यादा की लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया जा रहा है उससे तो यही लगता है कि यह दोनों ही नेता अपनी-अपनी जातियों के हितों के झंडाबरदार बनने की कोशिश कर रहे हैं तथा उनके इन स्तरहीन प्रयासों के चलते राज्य में यदि वर्गसंघर्ष के हालात भी निर्मित हो जायें तो इन नेताओं को कोई अफसोस नहीं होगा क्यों कि उनका तो उद्देश्य ही जातीय विद्वेश को बढ़ावा देकर उसका राजनीतिक लाभ अर्जित करने का है। मायावती व मुलायम सिंह का एक दूसरे के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया तो वर्षों से रहा है तथा उनकी पारस्परिक शत्रुता व विद्वेषपूर्ण प्रवृत्ति की निरंतरता अभी भी जारी है। ऐसा लगता है कि इन नेताओं ने कालांतर में देश, काल और परस्थितियों से कोई सबक नहीं सीखा है तथा बार-बार देश के संविधान, संविधान निर्माता डॉ. अंबेडकर, समाजवादी विचारधारा के प्रेरणास्त्रोत डॉ. राम मनोहर लोहिया के व्यक्तित्व व कृतित्व का बखान करके यह सिर्फ वोट की फसल ही काटते आये हैं तथा आगे भी उनके दृष्टिकोण में कोई परिवर्तन नहीं आने वाला है। मुलायम सिंह द्वारा मायावती के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी करने की अगर विशेष रुचि देखी जाती है तो उनके भाई और उत्तरप्रदेश  की अखिलेश यादव सरकार के वरिष्ठ मंत्री शिवपाल यादव तो मुलायम से भी सौ कदम आगे हैं जो शायद सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के मकसद से मायावती पर इतनी अभद्र टिप्पणी कर रहे हैं। वहीं मायावती भी इस मामले में किसी भी परिस्थिति में पीछे नहीं हैं तथा मुलायम व उनके परिवार पर शब्द बाण चालने के लिये अपनी राजनीतिक प्रतिष्ठा व व्यक्तित्व की गरिमा का ध्यान भी नहीं रख पा रही हैं तथा मुलायम व उनके परिजनों के खिलाफ मायावती के तरकस से जो भी तीर निकलते हैं वह जातिवाद का जहर ही उगलते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं अब तो उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी अपने पिता मुलायम की ही तरह मायावती पर निशाना साध रहे हैं तथा मायावती के लिये उनके द्वारा बुआ जी के स्थान पर अब फुआ   शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है, जो यह सिद्ध करने के लिये काफी है कि राजनीतिक रुतबा हासिल कर लेने से किसी व्यक्ति के संस्कार सुदृढ़ नहीं हो जाते जब तक कि व्यक्ति खुद को संस्कारवान बनाने की कोशिश न करे। वहीं मायावती भी अब अखिलेश के लिये मुलायम के लल्ला की जगह ललुआ शब्द का इस्तेमाल कर रही हैं तथा अन्य आरोप भी लगा रही हैं , जिससे यह सिद्ध होता है कि वह राजनीतिक फायदे के लिये ही समता, समरसता और भाईचारे के नारे का इस्तेमाल किया करती हैं जबकि असल में उन्हें इस तरह के आदर्शों और सिद्धांतों से कोई खास वास्ता नहीं है। देश के राजनेता शायद यह नहीं समझ पा रहे हैं कि देश का संविधान व उसमें समाहित मुद्दों  व मूल्यों  के आलोक में ही उनके राजनीतिक एजेंडे की सार्थकता सिद्ध हो सकती है तथा तुच्छ राजनीतिक लाभ के लिये यदि उन्होंने संस्कारों व सरोकारों को तहस-नहस करने का प्रयास किया तो देश व समाज के साथ उनका यह बड़ा अन्याय माना जायेगा। जातिवाद के हथियार से वोटों की फसल काटना जितना देश व समाज के लिये घातक है, इससे उतना ही खतरा देश के राजनीतिक तंत्र व राजनीतिक दलों के लिये भी है क्यों कि फिर ऐसे ही मुद्दों के आधार पर राजनीतिक दलों को बगावत व विघटन का दंश भी झेलना पड़ता है। लेकिन शायद नेता गण धरातलीय सच्चाई को नजरअंदाज करने में ही ख्ुाद का फायदा देख रहे हैं तथा अपने तात्कालिक व राजनीतिक फायदे के लिये वह देश व समाज हित की कसौटी पर खरा नहीं उतरना चाहते।

Friday 2 May 2014

किसानों की बदहाली पर राजनीतिक दलों का ध्यान नहीं

सुधांशु द्विवेदी

देश के मौजूदा लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दलों एवं उनके क्षत्रपों द्वारा अपनी चुनावी बढ़त सुनिश्चित करके सत्ता सुख अर्जित करने के लिये एड़ीचोटी का जोर लगाया जा रहा है लेकिन देश के अन्नदाता किसान वर्ग की बदहाली दूर करने तथा उनकी बेहतरी सुनिश्चित करने के प्रति आज भी गंभीरता का अभाव दिखाई दे रहा है। सच तो यह है कि किसानों की बदहाली इस लोकसभा चुनाव में चुनावी मुद्दा ही नहीं बन पाई है। कहीं सूखा कहीं बाढ़ तो कभी सूखा कभी बाढ़ की प्राकृतिक आपदा से तंग आ चुके देश के किसान वर्ग के प्रति राजनीतिक दलों एवं उनके क्षत्रपों में पर्याप्त संवेदनशीलता एवं सदाशयता होनी चाहिये लेकिन ताजा परिस्थितियों को देखकर तो ऐसा ही लगता है कि देश का किसान वर्ग राजनीतिक जगत के लिये सिर्फ पारस्परिक आरोप-प्रत्यारोप व राजनीतिक रोटियां सेंकने का ही आधार बन चुका है जबकि देश का राजनीतिक जगत किसानों को उनके उत्थान एवं कल्याण का सशक्त आधार प्रदान करने के प्रति गंभीर नहीं है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में अपना विशिष्ट स्थान रखने वाला बुंदेलखंड क्षेत्र पिछले कई वर्षों से प्राकृति आपदाओं का दंश झेलने के लिये विवश है। भुखमरी और सूखे की भयावहता के चलते लाखों लोग पलायन कर चुके हैं तथा स्थिति में कोई सकारात्मक परिवर्तन न होने की संभावना से हताश लोगों के पलायन का दौर अभी भी जारी है। स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यहां के लोगों को भरपूर पेयजल भी उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। बुंदेलखंड के किसानों को उम्मीद थी कि इस बार के लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दलों द्वारा  सूखा और पलायन को अपना चुनावी मुद्दा बनाया जायेगा लेकिन राजनीतिक दल ऐसा कर पाने में नाकाम रहे तथा किसानों का मुद्दा अवसरवादी राजनीति के धुंध में गुम सा हो गया है। देश का बुंदेलखंड क्षेत्र पिछले कई वर्षों  से दैवीय और सूखा जैसी आपदाओं का दंश झेल रहा है और किसान उपेक्षा व बदहाली का दंश झेलने के लिये विवश हैं। उत्तरप्रदेश समाजवादी पार्टी के नेता  बुंदेलखंड में किसानों और कामगारों के पलायन का ठीकरा कांग्रेस और केंद्र सरकार पर फोड़ते हैं तथा कहते हैं कि केन्द्र सरकार ने यदि किसानों और गरीबों  के मुद्दे पर अपनी जिम्मेदारियों का दायित्वपूर्ण निर्वहन करते तथा योजनाओं का प्रभावी अमल सुनिश्चित करते तो हालातों पर काबू पाया जा सकता था लेकिन सरकार की गैर जिम्मेदारी व संवेदनहीनता जन भावनाओं पर हावी रही वहीं कांग्रेस नेता उत्तरप्रदेश के हिस्से में आने वाले बुंदेलखंड क्षेत्र की बदहाली के लिये राज्य की समाजवादी पार्टी सरकार को जिम्मेदार मानते हैं। कांग्रेस नेताओं का मानना है कि  राहुल गांधी हमेशा बुंदेलखंड के प्रति संवेदनशील रहे हैं तथा उनकी सिफारिश पर ही विशेष पैकेज दिया गया था लेकिन मौजूदा सपा सरकार ने अपने कर्तव्यों का निर्वहन सही मायने में नहीं किया, जिसका खामियाजा बुंदेलखंड वासियों को भुगतना पड़ रहा है। उनको लगता है कि केन्द्र सरकार ने बुंदेलखंड वासियों के उत्थान एवं कल्याण के लिये करोड़ों रुपये का पैकेज दिया लेकिन राज्य की सपा सरकार जरूरतमंदों के हित में इन साधनों-संसाधनों का समुचित सदुपयोग सुनिश्चित करने में नाकाम रही तथा आर्थिक पैकेज बेलगाम नौकरशाही तथा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। बहुजन समाज पार्टी भी बुंदेलखंड के किसानों की बदहाली व विपन्नता के लिये समाजवादी पार्टी व कांग्रेस को जिम्मेदार मानती है। पार्टी को लगता है कि केन्द्र में सत्ताधारी यूपीए सरकार यहां के लोगों के हक और हितों का संरक्षण करने में विफल साबित हुई है, जिसका नतीजा लोगों के पलायन व गंभीर पेयजल संकट के रूप में देखने को मिल रहा है वहीं उत्तरप्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार भी अपने कर्तव्यों को निर्वहन गंभीरतापूर्वक करने के बजाय योजनाओं एवं कार्यक्रमों का सिर्फ कागजी अमल ही सुनिश्चित करती रही । बुंदेलखंड के  किसानों के पलायन को चुनावी मुद्दा न बनाए जाने को विभिन्न दलों के नेता अलग-अलग तर्क देते हैं तथा किसानों के मुद्दे के आधार पर अपना राजनीतिक हित भी साधते हैं लेकिन वह किसानों के खुद हितचिंतक नहीं हैं। बुंदेलखंड क्षेत्र देश में महाराष्ट्र के विदर्भ जैसी ही है, जहां एक बार महाराष्ट्र विधानसभा में किसानों के मुद्दे को लेकर विदर्भ क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले एक विधायक ने किसानों के मुद्दे को लेकर विधानसभा के अंदर ही आत्मदाह का प्रयास किया था लेकिन विदर्भ क्षेत्र के किसानों की स्थिति में आज तक कोई सकारात्मक बदलाव नहीं आया तथा वहां भी पेयजल के लिये भी त्राहि-त्राहि मचती रहती है। विडंबना यह है कि एक तो किसानों के मुद्दे को लेकर राजनीतिक दल और राजनेता गंभीर नहीं हैं और फिर वह जनमानस का मजाक उड़ाने, उन्हें आंख दिखाने से भी परहेज नहीं करते। अभी पिछले दिनों ही एनसीपी प्रमुख शरद पवार के भतीजे और महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री अजीत पवार ने लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान लोगों को धमकाया था कि यदि लोग उनकी बहन यानी शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले को वोट नहीं देंगे तो पीने के लिये पानी नहीं मिलेगा। इससे पहले भी अजीत ने पेयजल के मुद्दे पर ही बेहद विवादास्पद बयान दिया था, जिसकी देशभर में आलोचना हुई थी तथा बाद में अजीत को मांफी मांगनी पड़ी थी।  इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि किसानों के मुद्दे लोकसभा के चुनावी महासमर में लगभग गायब हैं। राजनीतिक दलों द्वारा किसानों की बदहाली और विपन्नता के मुद्दे पर भले ही विरोधियों पर दोषारोपण किया जाये लेकिन वह खुद किसानों के मुद्दे पर कोई परिणामदायक पहल करने के लिये तैयार नहीं हैं। किसानों द्वारा आत्महत्या किया जाना किसी भयावह आपदा से कम नहीं है लेकिन विडंबना यह है कि किसानों की आत्महत्या के समय भी राजनीतिक दल स्थिति की भयावहता को राजनीतिक नजरिये से देखने से खुद को दूर नहीं रख पाते। यही कारण है कि किसानों के कल्याण के संदर्भ में किसी ठोस नीति व उसके प्रभावी क्रियान्वयन की संभावना अस्तित्व में ही नहीं आ पाती। यदि कुछ योजनाएं व कार्यक्रम आकार लेते भी हैं तो उनका क्रियान्वयन सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहता है।

देश को चाहिये स्थायी सरकार

सुधांशु द्विवेदी

लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

देश के लोकसभा चुनाव के सात चरणों का मतदान समाप्त होने व इन सभी चरणों में मतदाताओं द्वारा बढ़चढक़र मताधिकार का उपयोग करने से चुनाव प्रक्रिया के प्रति जनमानस के उत्साह का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। देशवासी चाहते हैं कि लोकसभा चुनाव के उपरांत केन्द्र में स्थायी सरकार का गठन हो जो व्यापक जनभावनाओं के सजग प्रहरी की भूमिका निभाते हुए जनता-जनार्दन के कल्याण व देश के चहुमुखी उत्थान का मार्ग प्रशस्त कर सके। लेकिन देश के ही कुछ राजनीतिक क्षत्रप बार-बार त्रिशंकु लोकसभा की भविष्यवाणी करके तथा लोकसभा चुनाव के बाद केन्द्र में बनने वाली सरकार के स्थायित्व पर सवाल खड़ा करके अलग ही राग अलाप रहे हैं। इस संदर्भ में क्षेत्रीय दलों की मानसिकता देश में राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक अस्थिरता को बढ़ावा देने की तो है ही साथ ही राष्ट्रीय राजनीतिक दल भी देश को त्रिशंकु लोकसभा के भंवरजाल में फंसकर राजनीतिक अनिश्चितता के दौर से गुजरते हुए देखना चाहते हैं। राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों में समाजवादी पार्टी हो या बहुजन समाज पार्टी, क्षेत्रीय दलों में चाहे तृणमूल कांग्रेस हो या अन्नाद्रमुक, द्रमुक हो या पीएमके। इन सभी राजनीतिक पार्टियों के दृष्टिकोण से यही स्पष्ट होता है कि वह लोकसभा चुनाव में अपने बेहतर प्रदर्शन के आधार पर सरकार गठन में आवश्यकता पडऩे पर बड़े पैमाने पर सौदेबाजी का इरादा तो रखती ही हैं साथ ही वह लोकसभा चुनाव के बाद केन्द्र में ऐसी मजबूर गठबंधन सरकार के गठन की पक्षधर हैं जो सत्ता संभालने के बाद राष्ट्रीय व लोक प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के बजाय गठबंधन के घटक दलों के सामने दंडवत रहकर नौ दिन चले अढ़ाई कोस की कहावत को ही चरितार्थ कर पाये। समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव द्वारा यह दावा बार-बार किया जा रहा है कि लोकसभा चुनाव के बाद उनकी पार्टी के समर्थन के बिना केन्द्र में किसी भी सरकार का गठन असंभव होगा। अपनी दलीय प्रतिबद्धता व राजनीतिक ताकत में इजाफा होने की अभिलाषा पाले मुलायम सिंह का यह दावा भले ही लोगों द्वारा स्वीकार भी किया जाये लेकिन सपा मुखिया द्वारा बार-बार त्रिशंकु लोकसभा की भविष्यवाणी किया जाना कहीं न कहीं उनके द्वारा राष्ट्रीय सरोकारों को नजरअंदाज किये जाने की ही झलक प्रस्तुत करता है। क्यों कि देश ने कालांतर में त्रिशंकु लोकसभा व गठबंधन सरकारों की मजबूरियों को काफी  करीब से देखा है। गठबंधन सरकारों में शामिल या बाहर से समर्थन देने वाले घटक दलों की अवसरवादिता व दबाब की राजनीति ने कई बार राष्ट्रहितों व लोक सरोकारों को गहरा आघात पहुंचाया है। चाहे हम एचडी देवगौड़ा और बाद में इंद्रकुमार गुजराल के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चे की सरकार की बात करें या फिर 13 महीने के कार्यकाल वाली वाजपेयी सरकार की, अथवा केन्द्र की मौजूदा यूपीए सरकार की। गठबंधन सरकारों में शामिल घटक दलों का रवैया हमेशा ही स्वार्थमिश्रित आकांक्षाओं व अवसरवादिता की मानसिकता से प्रेरित रहा है तथा गठबंधन सरकारों में शामिल घटक दलों ने गठबंधन धर्म के नाम पर सरकार को ब्लैकमेल करने व मध्यावधि चुनाव की आशंका को बढ़ावा देने में ही ज्यादा रुचि दिखाई है। त्रिशंकु लोकसभा के हालात निर्मित होने के बाद अस्तित्व में आई तत्कालीन वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में अन्नाद्रमुक के रवैये से पूरी सरकार हलाकान रही तथा जयललिता द्वारा उस समय प्रतिषोध की भावना से प्रेरित होकर केन्द्र सरकार पर बार-बार तमिलनाडु की तत्कालीन करुणानिधि सरकार को बर्खास्त कर वहां राष्ट्रपति शासन लागू करने का दबाव तो बनाया ही जाता रहा साथ ही जयललिता द्वारा सरकार को अपने समर्थन की कीमत भी बार-बार वसूली जाती रही। तत्कालीन संयुक्त मोर्चे के संयोजक तेलगू देशम पार्टी के अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू काफी मान-मनौव्वल के बाद संयुक्त मोर्चे के संयोजक पद से इस्तीफा देने व 13 महीने के कार्यकाल वाली वाजपेयी सरकार को समर्थन देने को राजी भी हुए थे तो उनका उक्त समर्थन बिना शर्त नहीं था तथा वह प्रेशर पालिटिक्स के तहत सरकार को तेलगूदेशम पार्टी का बाहर से समर्थन सुनिश्चित करते हुए इस समर्थन की भरपूर कीमत भी वसूलते रहे तथा उस दौर में उनके व उनकी पार्टी के रवैेये में हमेशा आंध्रप्रदेशवाद की क्षेत्रीय राजनीति ही हावी रही। यूपीए की वर्तमान मनमोहन सरकार के निवर्तमान कार्यकाल व पिछले कार्यकाल में भी यूपीए गठबंधन के घटक दलों की मनमानी चरम पर रही। इस संदर्भ में तमिलनाडु में प्रभावशाली पार्टी द्रमुक व उसके मुखिया एम. करुणानिधि व उनके परिजनों के रवैये व उनकी वर्तमान स्थिति पर दृष्टिपात करके इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि राजनीतिक दलों व उनके नेताओं द्वारा अपनी राजनीतिक ताकत का बेजा इस्तेमाल किस हद तक किया जाता है। यूपीए सरकार के कार्यकाल में हुए अधिकांश कथित घपलों-घोटालों के आरोप तो द्रमुक पार्टी के नेताओं अर्थात् करुणानिधि के परिजनों व उनके रिश्तेदारों पर ही लगे। करुणानिधि की पुत्री कनीमोझी हों या फिर ए. राजा। दयानिधि मारन हों या द्रमुक पार्टी के अन्य प्रभावशाली नेता। मंत्री पद पर आसीन रहने व सत्ता में अपनी भागीदारी के दौरान पद व प्रभाव का अप्रत्याशित ढंग से दुरुपयोग किया तथा बाद में घपलों-घोटालों का भंडाफोड़ होने तथा खुद पर कानूनी शिकंजा क सने के बाद सरकार से खुद के लिये राजनीतिक मदद सुनिश्चित करने का दबाव भी बनाया तथा बाद में उनकी पार्टी गठबंधन से अलग भी हो गई। तो कहने का तात्पर्य यही है कि देश में आम चुनावों के बाद त्रिशंकु लोकसभा के हालात निर्मित होना तथा किसी भी पार्टी या गठबंधन को पूर्ण बहुमत न मिल पाना देश के लिये किसी आपदा जैसा ही है तथा देश अब तक ऐसे मामलों में भारी कीमत भी चुकाता आया है। जब लोकसभा के मध्यावधि चुनावों की नौबत आने के बाद देश को करोड़ों- अरबों रुपये का आर्थिक बोझ वहन करने के लिये मजबूर होना पड़ा है तथा देशवासी महंगाई व बदहाली के दंश से कराहते रहे हैं। ऐसी स्थिति में सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव व उनके जैसे अन्य राजनीतिक क्षत्रपों को चाहिये कि वह लोकसभा चुनाव में अधिकाधिक सीटें अपनी पार्टी की झोली में डालकर अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ाने व अपने स्वर्णिम राजनीतिक भविष्य का सपना तो देखें लेकिन आम चुनावों के बाद त्रिशंकु लोकसभा की कामना करना बंद कर दें। क्यों कि राजनेताओं के लिये भी राष्ट्रहित सर्वोपरि होना चाहिये तथा लोकसभा चुनाव के बाद त्रिशंकु लोकसभा जैसे अस्थिरतापूर्ण व अनिश्चिततापूर्ण राजनीतिक हालात राष्ट्रहित की दृष्टि से कतई उचित नहीं होंगे।