Tuesday 29 April 2014

लोकसभा चुनाव में कालाधन भी बड़ा मुद्दा

सुधांशु द्विवेदी

लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

देश के मौजूदा लोकसभा चुनाव में सियासी सरगर्मी व पैंतरेबाजी पिछले चुनावों के मुकाबले में कहीं अधिक नजर आ रही है वहीं जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वह है चुनाव में साधनों संसाधनों के दुरुपयोग को रोकने के लिये चुनाव आयोग व संबंध अन्य संस्थाओं की गंभीरता व संवेदनशलता। देश में कालेधन के मुद्दे को लेकर आये दिन बहस होती रहती है, जिसका असर देश में कालांतर में हुए विभिन्न जनआंदोलनों में तो नजर आई ही है जिसमें आंदोलनकारियों ने अपने भाषणों, बयानों के माध्यम से देश में काले धन के मुद्दे को देश की प्रतिष्ठा के धूलधूसर होने का एक बड़ा कारण माना है। साथ ही राजनीतिक दलों व उनके क्षत्रपों के बीच कालेधन के मुद्दे को लेकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर संचालित होना आम बात हो गई है। विडंबना यह है कि राजनीतिक दल और उनके महत्वपूर्ण किरदारों द्वारा कालेधन के मुद्दे पर विरोधियों को घेरने की तो रणनीतिक कोशिश की जाती है लेकिन इसी संदर्भ में उनका खुद के मामले में रवैया सुविधावादी व सहूलियत परस्त है। चुनावी मौसम में देश भर में काले धन की बरामदगी से सिर्फ चुनाव आयोग ही नहीं अपितु रिजर्व बैंक भी चिंतित है। बैंकों के जरिये काला धन चुनाव में लगाने की आशंका कोसमाप्त करने के लिए बैंकों के स्तर पर भी सतर्कता बढ़ा दिया जाना चुनाव में काले धन के उपयोग को रोकने की कवायद की ही हिस्सा है। आरबीआई को आशंका है कि चुनाव में पैसा लगाने के लिए बैंकों के जरिये विदेश से पैसा मंगाया जा सकता है। इस वजह से केंद्रीय बैंक ने बैंकों के लेनदेन पर अपनी निगरानी कड़ी की गई है। वहीं चुनाव आयोग द्वारा बैंकों को पत्र भी जारी करके इस संदर्भ में विशेष पहल किये जाने की अपेक्षा जताई गई है। देश के सभी बैंकों को रिजर्व बैंक की ओर से यह निर्देश दिया गया  है कि वे सीमा पार से आने वाली सभी रकमों के बारे में विस्तार से सूचना उपलब्ध कराएं। वैसे, अब भी बैंक विदेश से आने या देश से बाहर भेजे जाने वाले पांच लाख रुपये तक की रकम के बारे में वित्तीय खुफिया इकाई (एआईयू) को सूचना भेजते हैं। लेकिन अब बैंकों को इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के जरिये भेजी जाने वाली राशि के बारे में भी जानकारी उपलब्ध कराने के लिए कहा गया है। इस बारे में पिछले आरबीआई ने सभी बैंकों को सख्त निर्देश जारी कर रखे हैं। यह कदम मनीलांड्रिंग रोकने वाले कानून के तहत उठाया गया है। बैंकों द्वारा हर तरह के संदिग्ध लेनदेन को लेकर अपनी निगरानी और बढ़ा दी गई है। साथ ही, गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) की तरफ से हो रहे नकदी लेनदेन या उनके वित्तीय हस्तांतरण को लेकर भी निगरानी में इजाफा किया गया है। इस बात का शक है कि राजनीतिक दलों ने कुछ एनजीओ के मार्फत चुनाव में ब्लैक मनी लगाने का रास्ता अपने लिये आसान बना लिया  है। ये कदम मनीलांड्रिंग रोधी कानून के तहत उठाए गए हैं। देश में आम चुनावों की घोषणा होने के बाद जांच एजेंसियों द्वारा अभी तक 250 करोड़ रुपये की राशि पकड़ी गई है। ऐसी आशंका है कि इसका एक बड़ा हिस्सा काला धन के रूप में है। अभी चुनाव प्रक्रिया खत्म होने में लगभग दो सप्ताह का समय लगेगा लेकिन जांच एजेंसियों की तरफ से जो राशि पकड़ी गई है वह वर्ष 2009 के आम चुनाव में पकड़ी गई राशि से कहीं ज्यादा है। निर्वाचन आयोग की तरफ से इस बार चुनाव में काले धन के इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए कई उपाय किए गए हैं। फिर भी जिस तरह से अरबों रुपये जब्त किए गए हैं, वह चुनाव में अवैध धन के इस्तेमाल की बात को नये सिरे से प्रमाणित करते हैं। चुनाव में काले धन के इस्तेमाल को रोकने के लिये चुनाव आयोग और अन्य संस्थाओं द्वारा जितनी गंभीरतापूर्वक अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन किया जा रहा है, राजनीतिक दलों एवं उनके क्षत्रपों का रवैया उतना ही गैर जिम्मेदाराना है। कालेधन के मुद्दे का इस्तेमाल वह विरोधियों की छवि भंजित करने तथा जनता-जनार्दन की नजर में पाक साफ साबित करने के लिये तो करते हैं लेकिन असलियत यही है कि कालेधन के मुद्दे पर उनकी कोई सुविचारित व दूरदर्शी नीति नहीं है। देश में कालेधन के मुद्दे को लेकर पिछले एकाध साल में जो आंदोलन हुए हैं उनके पक्ष में व्यापक जनभावनाएं रही हैं जब जनमानस ने बड़े पैमाने पर दुविधा और सुविधा से परे रहकर सडक़ों पर उतरकर आंदोलनकारियों के साथ कदमताल किया है लेकिन विडंबना यह है कि उक्त आंदोलनों का भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राजनीतिकरण हो गया तथा राजनीतिक क्षत्रपों ने आंदोलनकारियों के मंच को राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिये इस्तेमाल करना शुरू कर दिया तथा राजनीतिक आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच कालेधन का मूल मुद्दा ही नेपथ्य में तिरोहित हो गया। देश के राजनीतिक दल यदि देश की साख ईमानदारी के आधार पर बढ़ाने तथा इस संदर्भ में व्यापक जनभावनाओं के सजग प्रहरी की भूमिका निभाने के लिये गंभीर होते तो वह कालेधन के मुद्दे पर अपनी नीति व नीयति न सिर्फ स्पष्ट रखते बल्कि जनमानस को उनकी प्रतिबद्धता की झलक भी दिखाई देती। साथ ही राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव में उम्मीदवारों के चयन का आधार भी उनकी आर्थिक सामथ्र्य की जगह जनसेवा व लोककल्याण के प्रति उनकी निष्ठा को बनाया जाता। संगठनात्मक व राजनीतिक गतिविधियों के लिये मिलने वाले चंदे में पारदर्शिता व पवित्रता का ध्यान रखा जाता। यदि राजनीतिक दलों ने समय रहते ऐसी सकारात्मक कवायदों को अंजाम दिया होता तो इससे न सिर्फ अखिल विश्व स्तर पर भारत के राजनीतिक जगत की छवि उज्ज्वल होती अपितु राष्ट्रीय स्तर पर भी राजनीतिक दलों, उनके नेताओं और देश की चुनावी प्रक्रिया के प्रति देश के जनमानस में विश्वास व उत्साह का नया वातावरण बनता। लेकिन दुर्भाग्यवस  राजनीतिक दलों और उनके नेतृत्वकर्ताओं ने सत्ता की राजनीति को ही अपनी प्रासंगिकता का आधार माना है तथा अवसरवादिता की मानसिकता से वह उबर नहीं पाये हैं। यही कारण है कि कालेधन के मुद्दे पर बाकी समय में जिस तरह आम जनमानस की चिंता बढ़ी रहती है उसी तरह चुनाव के मौके पर इस मामले में निर्वाचन आयोग व अन्य जिम्मेदार निकाय चिंतित हैं।

बारू के खुलासे को कांग्रेस ने किया निष्प्रभावी

सुधांशु द्विवेदी

लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

देश के वर्तमान लोकसभा चुनाव में अप्रत्याशित ढंग से बढ़ी मूल्यहीनता को वर्षों तक याद किया जायेगा। देश का जनमानस इस बात से आश्चर्यचकित एवं हतप्रभ है कि लोकसभा चुनाव में स्वस्थ लोकतांत्रिक मूल्यों एवं मान्य परंपराओं का स्थान पूरी तरह से असहिष्णुता, उच्छंखलता, अराजकता तथा अवसरवादिता ने ले लिया है। जहां राजनीतिक दलों एवं उनके धुरंधरों द्वारा स्तरहीन आरोप-प्रत्यरोप, चरित्र हनन एवं ओछे बयानों के माध्यम से राजनीतिक मूल्यों को धूलधूसर करते हुए लोकतांत्रिक मूल्यों का चीरहरण किया जा रहा है। वहीं प्रभावशाली गैर राजनीतिक व्यक्तियों द्वारा भी खुद को राजनीतिक दंगल में शामिल करते हुए पूर्वाग्रह एवं पक्षपात से प्रेरित होकर चुनावी मौसम में चलाए जा रहे शब्दबाण सभ्य समाज एवं राष्ट्रीय सरोकारों को बेजार कर रहे हैं वहीं उनके खुद के लिये भी शर्मिंदगी व मुश्किल के हालात निर्मित हो रहे हैं, ऐसे में जनता-जनार्दन को लगता है कि घात-प्रतिघात की बढ़ती प्रवृत्ति मानवीय मूल्यों पर भारी पड़ रही है तथा देश के राजनीतिक क्षत्रप सिर्फ सत्ता व स्वार्थ आधारित राजनीति को ही अपने राजनीतिक उद्देश्यों का पैमाना समझ बैठे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की किताब में किये गये खुलासे के संदर्भ में चुप्पी तोड़ते हुए कहा है कि सोनिया को कभी भी सरकारी फाइलें नहीं दिखाई गईं। पटेल ने बारू की किताब में लिखी इस बात को बेबुनियाद बताते हुए खारिज कर दिया कि सोनिया को सरकारी फाइलें दिखाई जाती थीं। पटेल ने कहा कि मैंने किताब पढ़ी नहीं है पर दोस्तों से मैंने जो कुछ भी सुना है उस पर मैं यह कह सकता हूं कि इस तरह की बातें बेबुनियाद हैं। जब आप कहते हैं कि सभी अहम सरकारी फाइलें उनके पास भेजी जाती थीं तो यह सब बेबुनियाद है।  पटेल ने यह भी कहा है कि मैं कोर ग्रुप कमिटी का सदस्य हूं। यदि कैबिनेट का कोई सदस्य कहता है कि सोनिया गांधी को फाइलें दिखाई गईं तो मैं सार्वजनिक जीवन छोड़ दूंगा। उल्लेखनीय है कि अपनी किताब 'एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर - दि मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंहÓ में बारू ने दावा किया है कि प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव पुलक चटर्जी प्रधानमंत्री कार्यालय के फैसलों पर सोनिया गांधी से 'निर्देशÓ लेते थे। भाजपा नेताओं द्वारा कांग्रेस शासनकाल के घोटालों की जांच करने और एक जवाबदेही आयोग के गठन संबंधी बयान दिए जाने पर भी पटेल ने कहा कि उन्हें करने दीजिए। हम किसी से डरते नहीं हैं। हम पहले भी इसका सामना कर चुके हैं। वे तो इस हद तक चले गए थे कि उन्होंने प्राथमिकी में राजीव गांधी का भी नाम डाल दिया था। पटेल ने यह भी कहा कि पहली बात तो यह कि वे सत्ता में नहीं आने वाले और यदि वे सत्ता में आ भी गए तो हम डरते नहीं हैं क्योंकि हमने कुछ भी गलत नहीं किया है। कांग्रेस ने अपनी अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा के खिलाफ भाजपा के भ्रष्टाचार के आरोपों को यह कहते हुए नकार दिया है कि यह विपक्षी दल की हताशापूर्ण कार्रवाई है क्योंकि वह रायबरेली और अमेठी में प्रियंका गांधी के प्रचार अभियान से सहमी हुई है। उल्लेखनीय है कि भाजपा ने राबर्ट वाड्रा के कथित जमीन सौदों पर रविवार को एक वीडियो एवं पुस्तिका जारी की थी। वाड्रा के खिलाफ बीजेपी के अभियान पर कांग्रेस ने पलटवार करते हुए कहा है कि वाड्रा को बदनाम करने की तमाम कोशिशों के बावजूद सोनिया गांधी के दामाद के खिलाफ कुछ भी नहीं पाया गया। कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने का कहना है कि भाजपा ने पांच महीने तक राजस्थान में बहुत कुछ खंगाला लेकिन उन्हें कुछ भी नहीं मिला। इस संबंध में तीन जनहित याचिका भी खारिज हो चुकी हैं।  देश के राजनीतिक जगत ने शायद लोकतांत्रिक मूल्यों के छिन्न भिन्न करने के इरादे से ही काम करना शुरू कर दिया है। यही कारण है कि निर्वाचन आयोग की सजगता एवं संवेदनशीलता के बावजूद राजनीतिक क्षत्रपों व राजनीतिक सोच रखने वाले गैर राजनीतिक प्रभावशाली लोगों की बदजुबानी थमने का नाम नहीं ले रही है। बात सिर्फ  यहीं खत्म नहीं होती,बयानबाजी के साथ-साथ गाली गलौज तथा मारपीट की नौबत भी सामने आ जाती है। अभी विगत दिनों ही जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष व भारतीय जनता पार्टी में हाल ही में शामिल हुए सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा प्रियंका गांधी के खिलाफ की गई आपत्तिजनक टिप्पणी पर काफी विवाद मचा था साथ ही भाजपा नेता अरुण जेटली भी गांधी-नेहरू परिवार पर व्यक्तिगत आक्षेप लगाकार विरोधियों के निशाने पर रहे हैं। उधर जेटली खुद भी पंजाब की अमृतसर लोकसभा क्षेत्र में बाहरी प्रत्याशी होने तथा लोकहितैषी मुद्दों को नजरअंदाज करने के आरोपों से जूझ रहे हैं।  अभी पिछले दिनों ही आम आदमी पार्टी के नेता अरङ्क्षवद केजरीवाल के सहयोगी व दिल्ली के पूर्व मंत्री सोमनाथ भारती पर वाराणसी में चुनाव प्रचार के दौरान हमला कर दिया गया। सोमनाथ की पिटाई हुई तथा उनकी गाड़ी में तोडफ़ोड़ की गई। सोमनाथ पर हमले के लिये अरविंद केजरीवाल ने सीधे तौर पर भारतीय जनता पार्टी को जिम्मेदार ठहराया है। केजरीवाल का कहना है कि उनकी पार्टी की निरंतर बढ़ती लोकप्रियता को भारतीय जनता पार्टी पचा नहीं पा रही है तथा वाराणसी लोकसभा क्षेत्र से उनकी संभावित जीत से बौखलाई भारतीय जनता पार्टी के लोग उन पर व उनके सहयोगियों पर हमला कर रहे हैं। इससे पहले खुद पर हुए हमलों के लिये भी केजरीवाल ने विरोधियों की सोची समझी साजिश को जिम्मेदार बताया था। केजरीवाल का कहना है कि भारतीय जनता पार्टी के लोग भले ही उन पर हमला करें लेकिन वह शांति का रास्ता नहीं छोड़ेंगे तथा उनका हिंसा रहित राजनीतिक अभियान जारी रहेगा। यहां उल्लेखनीय है कि राजनीतिक क्षत्रपों द्वारा यदि सुविचारित राजनीतिक अभियान के माध्यम से अपनी और अपनी पार्टी की चुनावी जीत सुनिश्चित करने की दिशा में निर्णायक प्रयासों को अंजाम दिया जाता तो किसी को कोई ऐतराज नहीं होता लेकिन मौजूदा लोकसभा चुनाव में तो स्थिति पूरी तरह से उलट दिखाई दे रही है, जहां अपना हित पूरा हो या न हो, विरोधियों को क्षति पहुंचाने के लिये तमाम स्तरीय व गैरस्तरीय तरीकों का सहारा लिया जा रहा है, जो जनमानस की नाराजगी व चुनावी व्यवस्था पर से उनका मोहभंग होने का भी कारण बन सकता है।

Wednesday 23 April 2014

कोई भी दल नहीं देता शुचितापूर्ण राजनीतिक व्यवस्था की गारंटी

सुधांशु द्विवेदी

लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

देश के मौजूदा लोकसभा चुनाव से पहले जनता-जनार्दन में उम्मीद जगी थी कि राजनेताओं की विवादास्पद होती कार्यशैली तथा राजनीति में अपराधवाद व भ्रष्टाचार के बढ़ते दुष्प्रभाव को मद्देनजर रखते हुए देश के राजनीतिक दलों द्वारा व्यापक राष्ट्रहित एवं लोकहित में राजनीतिक व्यवस्था को शुचितापूर्ण बनाने की दिशा में प्रभावकारी प्रयासों को भी चुनावी मुद्दा बनाया जायेगा लेकिन वर्तमान हालात को देखकर ऐसा लगता है कि देश की राजनीतिक बिरादरी अवसरवादिता व सत्ता लोलुपता के दलदल से अभी भी नहीं उबर पाई है। भ्रष्टाचार एवं राजनीति के अपराधीकरण को रोकनें की आवाज यदा-कदा भले ही राजनीतिक दलों व उनके नेताओं के चुनावी भाषणों में सुनाई दे रही हो लेकिन इस मामले में राजनेताओं की कथनी और करनी के बीच व्याप्त बड़ा अंतर भविष्य में कम हो पायेगा इस बात की कोई संभावना दिखाई नहीं देती। आम आदमी पाटी के नेता अरविंद केजरीवाल ने अमेठी में लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान मतदाताओं को रिश्वत लेकर मतदान करने के लिये उत्प्रेरित करके नये विवाद को जन्म दे दिया है। केजरीवाल का कहना है कि लोग मतदान के दौरान दूसरे राजनीतिक दलों से मिलने वाले पैसे एवं अन्य संसाधनों को लेने में कोई संकोच नहीं करें तथा ऐसी रिश्वत लेने के बावजूद वह मतदान आम आदमी पार्टी के पक्ष में ही करें। उधर इसी मामले में अरविंद केजरीवाल और कुमार विश्वास समेत 10 लोगों के खिलाफ आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन को लेकर एफआईआर दर्ज की गई है। अधिकारियों द्वारा चुनाव प्रचार का वीडियो देखे जाने के बाद इन लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है । आरोप है लगा कि आप नेताओं ने बिना इजाजत के रोड शो किया और ट्रैफिक नियम की धज्जियां उड़ाईं। अपनी नवोदित राजनीतिक पार्टी को लोकसभा चुनाव के घमासान में शामिल करके राष्ट्रीय राजनीति में अपने और पार्टी के सुनहरे भविष्य का सपना देख रहे अरविंद केजरीवाल ने मतदाताओं से ऐसी विवादास्पद अपील करके वर्षों पुरानी उसी राजनीतिक व्यवस्था को एक बार फिर मजबूत बनाने का प्रयास किया है जिसके तहत राजनेता चुनावी लाभ के लिये समस्त नैतिक एवं अनैतिक तरीके अपनाते हुए सिर्फ अपनी जीत को ही एक मात्र राजनीतिक लक्ष्य मानते हैं। यह सर्वविदित है कि देश के जनता-जनार्दन द्वारा मतदान में यदि मताधिकार का उपयोग किया जाता है तो उसके पीछे मतदाताओं के स्वार्थ नहीं बल्कि उनकी राष्ट्रनिष्ठा व नागरिक कर्तव्यों के निर्वहन की उनकी प्रतिबद्धता की ही प्रमुख भूमिका होती है फिर रिश्वत लेकर मतदान करने जैसी विवादास्पद अपील को तो मतदाताओं को गुमराह करने का प्रयास ही माना जायेगा। दरअसल देश के राजनेताओं की भीड़ में केजरीवाल ही वह अकेले नेता नहीं हैं, जिन्हे मतदाताओं को गुमराह करने का दोषी माना जा सकता है। पिछले एकाध माह पूर्व ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार ने महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार के दौरान मतदाताओं को फर्जी मतदान करने के लिये उत्प्रेरित किया था। इस संदर्भ में चुनाव आयोग द्वारा सख्त रवैया अपनाते हुए पवार के खिलाफ प्रकरण दर्ज किया गया था तथा इस प्रकार लोकतांत्रिक मूल्यों की सरेआम धज्जियां उड़ाने के लिये देशभर में शरद पवार की आलोचना हुई थी। यही हालत राजनीतिक के अपराधीकरण की संक्रामक महामारी की है। विडंबना यह है कि राजनीति के अपराधीकरण के मुद्दे पर राजनीतिक दल एवं उनके नेता सिर्फ अपने विरोधियों को ही कठघरे में खड़ा करने तथा उन पर निशाना साधने की कोशिश करते हैं जबकि इस मुद्दे पर न तो उनके द्वारा आत्मचिंतन व आत्म विश्लेषण किया जाता और न ही राजनीति का अपराधीकरण रोकने के लिये उनके द्वारा कोई स्व स्फूर्त पहल की जातीहै। देश के लगभग सभी राजनीतिक दलों ने लोकसभा चुनाव में दागियों और आपराधिक पृष्ठभूमि वाले दावेदारों को चुनावी टिकट से नवाजने का काम किया है। विवादास्पद दावेदारों का पार्टी टिकट तय होने के बाद मीडिया व अन्य माध्यमों से उनकी छवि की असलियत उजागर होने तथा जनमानस में उनके प्रति विरोध पनपने के बावजूद न तो राजनीतिक दलों ने उनका टिकट निरस्त करने की कोई जहमत उठाई और न ही ऐसे विवादास्पद दावेदारों ने खुद चुनाव मैदान से हटने का साहस दिखाया। अब बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने विरोधी राजनीतिक दलों पर अपराधियों को लोकसभा टिकट दिये जाने का आरोप लगाया है तथा वह आये दिन भ्रष्टाचार व राजनीति में हावी अपराधवाद को लेकर विरोधी राजनीतिक दलों पर निशाना साधती रहती हैं लेकिन विडंबना यह है कि खुद मायावती की पार्टी बसपा में  भी कई आपराधिक पृष्ठभूमि वाले दावेदारों को लोकसभा चुनाव का टिकट देकर उनकी उम्मीदवारी पर मुहर लगाई है तथा उत्तरप्रदेश की पूर्ववर्ती मायावती सरकार के कई मंत्री तो गंभीर घपले-घोटालों के आरोप में जेल में भी बंद हैं। राष्ट्रीय जनता दल के सांसद प्रभुनाथ सिंह के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी हुआ है फिर भी वह राष्ट्रीय जनता दल की चुनावी  किस्मत चमकाने तथा अपनी रराजनीतिक प्रतिष्ठा को पुन: स्थापित करने की मोर्चेबंदी का दावा कर रहे हैं। साथ ही उनकी पार्टी के नेता लालू यादव आये दिन ऐसे ही मुद्दों को लेकर राजनीतिक विरोधियों पर प्रहार करते हैं, ऐसे में अब जबकि उनकी ही पार्टी के सांसद के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी हो गया है तो फिर इस संदर्भ में लालू क्या जवाब दे पायेंगे, यह विचारणीय विषय है। कई दावेदार तो जेल में रहकर ही चुनाव लडऩे व सांसद बनने का मंसूबा पाले हुए हैं। सांसद धनंजय सिंह को जौनपुर संसदीय क्षेत्र से नामांकन पत्र दाखिल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों अंतरिम जमानत प्रदान की थी। धनंजय सिंह और उनकी पत्नी जागृति सिंह अपनी घरेलू नौकरानी की हत्या के आरोपी हैं, जिन्हें जेल की सजा भुगतनी पड़ रही है। देश के राजनीतिक जगत ने देश की लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था व चुनावी प्रक्रिया को सिर्फ सत्तासुख का आधार ही माना है जबकि श्रेष्ठ लोकतांत्रिक मूल्यों व मान्य परंपराओं के प्रति उनमें कोई आस्था नहीं है, कम से कम वर्तमान परिस्थितियों को देखकर तो ऐसा ही लगता है। लोकतंत्र एवं जनमानस के प्रति अपने जिम्मेदारियों व जवाबदेही को नजरअंदाज करके सिर्फ विरोधियों पर भ्रष्टाचार एवं राजनीति के अपराधीकरण का दोषारोपण करके राजनेता व राजनीतिक दल यदि अपने अपेक्षित राजनीतिक लक्ष्य को पूरा करने में कामयाब हो भी जाते हैं तो इससे न तो देश का भला होने वाला है और न अव्यवस्था से तंग आ चुके जनमानस को किसी तरह की राहत मिल पायेगी क्यों कि सुचितापूर्ण राजनीतिक व्यवस्था की गारंटी तो किसी भी राजनीतिक दल और उसके नेताओं द्वारा दी ही नहीं जा रही है।

Sunday 20 April 2014

कांग्रेस को है यूपीए के सत्ता में लौटने की उम्मीद

सुधांशु द्विवेदी
लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

देश के लोकसभा चुनाव के लिये छठवें एवं सातवें चरण में 24 व 30 अप्रैल को मतदान होना है। इन दो चरणों में 206 लोकसभा क्षेत्रों में वोट पड़ेंगे, जहां के मतदाता अपने मताधिकार के उपयोग के माध्यम से राजनीतिक धुरंधरों के भाग्य का फैसला करेंगे। अब तक पांच चरणों में हुए मतदान के बाद का फीडबैक लेकर भविष्य की राजनीतिक संभावनाओं को ध्यान में रखकर कांग्रेस नेतृत्व अब आगे के चरणों में होने वाले मतदान के संदर्भ में ज्यादा मुस्तैदी दिखाने वाला है। क्यों कि पार्टी नेतृत्व को उम्मीद है कि अभी तक पांच चरणों में जिन लोकसभा क्षेत्रों में मतदान हुआ है वहां के चुनाव नतीजे तो पार्टी के लिये संतोषजनक रहेंगे ही साथ ही छठवें व सातवें चरण में होने वाले मतदान के संदर्भ में यदि प्रभावी रणनीति अमल में लाई गई तो चुनाव नतीजे और भी सकारात्मक होंगे। यही कारण है कि कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकारों द्वारा पार्टी के पूरे प्रचारतंत्र के बीच समन्वय व पार्टी कार्यकर्ताओं को निरंतर ऊर्जित व उत्साहित करने की कोशिश की जा रही है। कांग्रेस के रणनीतिकारों द्वारा एक तरफ तो आक्रामक चुनाव प्रचार अभियान के सहारे चुनावी बढ़त हासिल करने की कोशिश लगातार की जा रही है वहीं यूपीए गठबंधन को एकजुट रखने व लोकसभा चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद यूपीए के कुनबे में नये सहयोगी दलों को जोडऩे का विकल्प भी साथ रखा जा रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व उपाध्यक्ष राहुल गांधी सहित पार्टी के अन्य बड़े नेताओं द्वारा चुनाव प्रचार के दौरान अपने आक्रामक भाषणों का पूरा फोकस मुख्य विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी व उसकी रीतियों-नीतियों पर ही केन्द्रित रखा जा रहा है तथा दलीय प्रतिबद्धता कायम रखने के साथ-साथ अन्य धर्म निरपेक्ष दलों को बेवजह निशाना बनाने से भी परहेज किया जा रहा है। अभी पिछले दिनों ही कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने बिहार के किशनगंज लोकसभा क्षेत्र में अपनी चुनाव सभा के दौरान गुजरात के विकास के दावों को जहां टाफी माडल करार दिया वहीं बिहार के विकास माडल की जमकर तारीफ की। बिहार की सरजमीं पर राहुल गांधी के इस भाषण का आशय आसानी से समझा जा सकता है। बिहार में कांग्रेस पार्टी व लालू यादव के नेतृत्व वाली पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के बीच गठबंधन तो है ही साथ ही राहुल गांधी सुशासन बाबू अर्थात नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड को शायद भविष्य में कांग्रेस की परिस्थिति आधारित सहयोगी मानते हैं यही कारण है कि बिहार में राहुल की ताबड़तोड़ जनसभाओं में निशाने पर हमेशा राजग व भारतीय जनता पार्टी ही रहती है जबकि वह नीतीश के खिलाफ बयानबाजी करने से परहेज करते हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार वैसे भी धर्म निरपेक्षता के मुद्दे पर ही भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन राजग से अलग हुए थे तथा लोकसभा चुनाव बाद वह कांग्रेस पार्टी की धर्म निरपेक्ष व समावेशी सोच को ध्यान में रखकर आवश्यकता पडऩे पर यूपीए गठबंधन को सहयोग प्रदान करने से गुरेज नहीं करेंगे। कांग्रेस नेतृत्व को लगता है कि 2004 के लोकसभा चुनाव में लोकसभा की 145 सीटें जीतकर भी वह यूपीए गठबंधन के सत्ता के शिखर तक पहुंचाने में कामयाब हो गई थी तथा पार्टी को उम्मीद है कि मौजूदा लोकसभा चुनाव में भी कम से कम खुद को150 सीटें अर्जित हो जायेंगी तथा 272 का जादुई आंकड़ा पार करने का लक्ष्य सहयोगी दलों व चुनाव बाद करीब आने वाली राजनीतिक पार्टियों की मदद से पूरा हो जायेगा। इस प्रकार कांग्रेस को यूपीए के सत्ता में वापस लौटने की पूरी उम्मीद है। सिर्फ इतना ही नहीं कांग्रेस को भारतीय जनता पार्टी व राजग में मचे अंदरूनी घमासान में भी अपने लिये फायदा नजर आ रहा है तथा भाजपा नेताओं की गैर जिम्मेदाराना बयानबाजी भी भाजपा व राजग के सत्तारोहण के मार्ग में अवरोधक बनेगी, कांग्रेस को यह भीसंभावना नजर आ रही है। बिहार सरकार के मंत्री गिरिराज सिंह द्वारा नरेन्द्र मोदी विरोधियों को लोकसभा चुनाव के बाद पाकिस्तान भेजने की धमकी देने तथा अब बिहार के वरिष्ठ भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी द्वारा गिरिराज सिंह के गैर जिम्मेदाराना बयान को खारिज करने के बाद गिरिराज के बैकफुट में आने के घटनाक्रम को कांग्रेस द्वारा लोकसभा चुनाव में भुनाने की पूरी कोशिश की जायेगी। कांग्रेस के रणनीतिकार आसानी से यह कह सकेंगे कि भारत जैसे बहुलतावादी और वृहद लोकतांत्रिक देश में सभी नागरिकों को अपनी विचारधारा तय करने तथा राष्ट्रीय व सामाजिक मुद्दों पर अपनी राय स्पष्ट करने व अपना राजनीतिक दृष्टिकोण निर्धारित करने की पूरी आजादी है तथा देश के राष्ट्रनिष्ठ व संवेदनशील नागरिकों को देशभक्ति के मामले में किसी भी राजनीतिक पार्टी या व्यक्ति विशेष के प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं हैं। सहयोग, समन्वय व प्रभावी संवाद के माध्यम से लोकसभा चुनाव में अपनी राजनीतिक संभावनाओं को पुख्ता बनाने में जुटी कांग्रेस पार्टी के लिये यूपीए सरकार की उपलब्धियों का सहारा तो है ही साथ ही पार्टी राजग शासनकाल में सामने आई नाकामियों तथा तत्कालीन सरकार की अदूरदॢशता व कमजोरियों को भी चुनावी हथियार बना रही है। कांग्रेस व यूपीए में जहां राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने पर पूरी आम सहमति है तथा पार्टी के वरिष्ठ नेता भी नेतृत्व के मुद्दे पर एकमत हैं वहीं भाजपा में अभी भी कहीं न कहीं गतिरोध के स्वर उभर रहे हैं। छत्तीसगढ़ के दुर्ग लोकसभा क्षेत्र से भाजपा प्रत्याशी सरोज पांडे के चुनाव प्रचार के दौरान बांटा जा रहा एक पर्चा पूरी तरह से चर्चा का विषय बन चुका है, जिसमें अभी भी लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री बनवाने की अपील मतदाताओं से की जा रही है। कांग्रेस पार्टी को उम्मीद है कि भ्रष्टाचार, राष्ट्रीय सुरक्षा व महंगाई जैसे मुद्दों पर भी यूपीए व पूर्ववर्ती एनडीए शासनकाल का तुलनात्मक आंकड़ा प्रस्तुत किया जायेगा तो जनता-जनार्दन का प्रतिसाद यूपीए को ही मिलेगा। कांग्रेस द्वारा शुरुआती दौर में तो चुनावी मुहिम को विचारधारा व राष्ट्रीय मुद्दों पर ही केन्द्रित किये जाने का प्रयास किया जा रहा था लेकिन भाजपा व उसके नेताओं द्वारा कांग्रेस के दिवंगत नेताओं के अपमान तथा सोनिया व राहुल गांधी पर व्यक्तिगत निशाना साधने का सिलसिला चलाये जाने के बाद कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकारों द्वारा भी राजनीतिक हमलों के तरीके में बदलाव लाजिमी हो गया है। पूरे परिदृश्य पर अगर दृष्टिपात किया जाये तो ऐसा लगता है कि चुनाव प्रचार को लेकर भी भाजपा में चुनाव प्रचार के मुद्दों व बयानबाजी की रणनीति के संदर्भ में दो खेमे निर्मित हो गये हैं। एक खेमे के लोग अतिरंजित तरीके से चुनाव प्रचार कर रहे हैं तो दूसरे खेमे में शामिल नेता अपेक्षाकृत सहिष्णुता व सदाशयता का भाव परिलक्षित कर रहे हैं। अभी गत दिवस ही मध्यप्रदेश में अपने चुनावी प्रवास के दौरान भाजपा नेता व पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने राष्ट्र उत्थान के संदर्भ में पं. जवाहरलाल नेहरू की तारीफ की थी, इसे एक प्रतिष्ठित व स्थापित राजनेता के राजनीतिक शिष्टाचार ही माना जा सकता है। 

Thursday 17 April 2014


किंगमेकर बनने को बेताब हैं क्षेत्रीय दल

सुधांशु द्विवेदी
लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

देश के मौजूदा लोकसभा चुनाव के पांचवें चरण का मतदान होने के साथ ही चुनाव बाद उभरने वाली राजनीतिक तस्वीर और आकार लेने वाले समीकरणों के संदर्भ में सभी राजनीतिक दलों में गहन चिंतन-मंथन होना स्वाभाविक है लेकिन वर्ष 2004 व 2009 के लोकसभा चुनावों को मद्देनजर रखकर भी यदि पूरे परिदृश्य का आकलन किया जाये तो एक तथ्य आसानी से स्पष्ट हो जाता है कि देश की सत्ता के निर्धारण में क्षेत्रीय दल हमेशा ही किंगमेकर की भूमिका में रहते हैं। हालाकि क्षेत्रीय दलों की भूमिका कई बार दबाव की राजनीति व स्वहितों के संदर्भ में अतिरंजित रवैये की भी झलक दिखाती है जो राष्ट्रहित एवं लोक सरोकारों की दृष्टि से खतरे का संकेत भी है। राष्ट्रीय राजनीतिक दलों द्वारा राष्ट्रीय मुद्दों तथा अन्य लोक सरोकारों को अपने चुनावी अभियान में शामिल किया जाता है जबकि क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की नजर में क्षेत्रीय अस्मिता व संबंधित राज्य विशेष से जुड़े मुद्दे ही उनकी चुनावी बढ़त सुनिश्चत करने में प्रभावी भूमिका निभाते हैं। मध्यप्रदेश, छत्ताीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड जैसे राज्यों में भले ही चुनावी मुकाबला राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के बीच रहता है लेकिन तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार, सहित कई अन्य राज्य हैं जहां क्षेत्रीय राजनीतिक दल संबंधित राज्य की सत्ता की बागडोर संभालने का तो सौभाग्य प्राप्त कर ही रहे हैं, उनके समर्थन के बिना केन्द्रीय सत्ता का निर्धारण भी नहीं हो पाता। केन्द्र की सत्ता में अपनी प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका तय होने से पहले यह दल भविष्य में होने वाले राजनीतिक नफा-नुकसान का आकलन करने के साथ ही केन्द्र सरकार को समर्थन देने के बदले में अपने प्रभाव वाले राज्य के हितों से जुड़ी प्रतिबद्धताओं व शर्तों के संदर्भ में अपना नजरिया स्पष्ट कर देते हैं। यही कारण है कि केन्द्र की सत्ता में सहयोगी दल की भूमिका निभाने की स्थिति में क्षेत्रीय दल हमेशा ही फायदे में रहते हैं वहीं केन्द्रीय सत्ता की अगुवाई करने वाले राजनीतिक दल के मार्ग में आने वाले झंझावातों का भी उनकी सेहत पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है। तमिलनाडु राज्य में वैसे तो कई क्षेत्रीय दल सक्रिय हैं लेकिन वहां मुख्य मुकाबला राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री एम.करुणानिधि के नेतृत्व वाली पार्टी द्रमुक व राज्य की मौजूदा मुख्यमंत्री जयललिता के नेतृत्व वाली पार्टी अन्नाद्रमुक के बीच रहता है। इसके अलावा वहां पीएमके, एमडीएमके जैसी क्षेत्रीय पार्टियां भी अपना राजनीतिक आधार सिद्ध करने के लिये संघर्ष करती रहती हैं लेकिन उनका प्रभाव सीमित ही है। करुणानिधि के नेतृत्व वाली पार्टी द्रमुक केन्द्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की सहयोगी पार्टी रही है लेकिन बाद में करुणानिधि की बेटी कनिमोझी व करीबी रिश्तेदार तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री ए. राजा व दयानिधि मारन का नाम टेलीकाम घोटाले में सामने आने के बाद करुणानिधि को काफी फजीहत झेलनी पड़ी तथा अब वह मौजूदा लोकसभा चुनाव में फिर से अपना राजनीतिक वर्चस्व तमिलनाडु में सिद्ध करने के लिये प्रयासरत हैं। लोकसभा चुनाव के संदर्भ में करुणानिधि का प्रयास यही है कि उनकी पार्टी डीएमके को राज्य की अधिकाधिक लोकसभा सीटें जीतने में सफलता हासिल हो जाये ताकि वह लोकसभा चुनाव बाद केन्द्र में बनने वाली सरकार में अपनी प्रभावी हैसियत के आधार पर किंगमेकर के रूप में अपनी भूमिका तय कर सकें। करुणानिधि यूपीए व कांग्रेस के ज्यादा करीब आज भी नजर आ रहे हैं क्यों कि भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं द्वारा अपनी आलोचना किये जाने से वह काफी आहत हैं तथा संभावना यही है कि वह लोकसभा चुनाव बाद यूपीए के पाले में शामिल होकर ज्यादा राहत महसूस करेंगे। हालाकि तमिलनाडु राज्य की राजनीति में करुणानिधि के सामने चुनौतियां भी कम नहीं हैं। एक तरफ तो उनके परिवार में छिड़ा सत्ता संघर्ष चरम पर है वहीं राज्य की मुख्यमंत्री जयललिता के नेतृत्व वाली पार्टी अन्नाद्रमुक द्वारा भी उनके मार्ग में मुश्किलें पेश की जा रही हैं। क्यों कि अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता पहले ही खुद को प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल करके भविष्य की राजनीति के संदर्भ में अपने मजबूत इरादों का संकेत दे चुकी हैं वहीं लोकसभा चुनाव के बाद उनका प्रयास यही रहेगा कि यदि वह प्रधानमंत्री नहीं भी बन पाती हैं तो केन्द्र सरकार का गठन तो कम से कम उन्हीं के समर्थन की बदौलत हो। इसी प्रकार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी भी खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मान रही हैं, इस सिलसिले में वह काफी कवायद भी कर चुकी हैं। जिसके तहत एकाध माह पूर्व ही उन्होंने खुद के प्रधानमंत्री पद का दावेदार होने के संदर्भ में राष्ट्रव्यापी संदेश देने के लिये दिल्ली में गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के नेतृत्व में रैली आयोजित करने की कवायद की थी लेकिन अंतत: इस रैली में अन्ना के शामिल नहीं होने तथा अपेक्षानुरूप भीड़ भी एकत्रित नहीं होने के कारण ममता की उम्मीदों पर पानी फिर गया था। पश्चिम बंगाल राज्य की मुख्यमंत्री बनने से पहले केन्द्र में रेल मंत्री भी रह चुकीं ममता बैनर्जी की भी कोशिश यही है कि वह अपने गृहराज्य में लोकसभा की अधिकाधिक सीटें जीतकर केन्द्र की सत्ता में अपनी मजबूत दावेदारी जताएं तथा खुद के प्रधानमंत्री न बन पाने की स्थिति में भी वह केन्द्र में अपनी पार्टी के कोटे के मंत्री पदों व पश्चिम बंगाल राज्य के लिये आर्थिक पैकेज आदि के मामले में प्रभावी तरीके से अपनी बातें मनवा सकें। चूंकि ममता की धर्म निरपेक्ष विचारधारा जगजाहिर है इसलिये लोकसभा चुनाव के बाद उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस एनडीए को समर्थन नहीं देगी, ममता बैनर्जी इस बावत घोषणा भी कर चुकी हैं। इस दृष्टि से वह यूपीए के करीब ही अपने लिये संभावनाएं तलासेंगी, ऐसे आसार स्पष्ट नजर आ रहे हैं। बिहार में अपना चुनावी दमखम दिखा रही राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव के नेतृत्व वाली पार्टी राष्ट्रीय जनता दल को भी इस लोकसभा चुनाव में काफी उम्मीदें हैं। लालू की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का कांग्रेस के साथ सीटों का बंटवारा हुआ है, लालू यादव का भी प्रयास यही है कि उनकी पार्टी कांग्रेस के साथ मिलकर राज्य की 40 लोकसभा सीटों में से अधिकांश पर अपनी चुनावी फतह सुनिश्चत कर ले ताकि केन्द्रीय सत्ता में उनका रुतबा व दबदबा बरकरार रहे। लोकसभा के पांचवें चरण में बिहार की जिन लोकसभा सीटों में मतदान हुआ है उनमें लालू यादव की बेटी मीसा भारती की लोकसभा सीट पाटलिपुत्र भी शामिल है। इसके अलावा पांचवें चरण में ही कर्नाटक की हासन लोकसभा सीट के लिये भी मतदान हुआ है जहां पूर्व प्रधानमंत्री और जनता दल सेक्युलर के सुप्रीमों एचडी देवगौड़ा अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। देवगौड़ा भी लोकसभा चुनाव में कर्नाटक राज्य में अपनी पार्टी की धमाकेदार जीत सुनिश्चित करने की मंशा से काम कर रहे हैं। ऐसे ही हालात अन्य राज्यों के भी हैं जहां प्रभावशाली क्षेत्रीय राजनीतिक दल लोकसभा चुनाव में अपने पक्ष में राजनीतिक चमत्कार सुनिश्चित करके केन्द्र की सत्ता निर्धारण में किंगमेकर की भूमिका निभाने के लिये बेताब हैं।

Sunday 13 April 2014

निष्पक्ष एवं निर्बाध मतदान सुनिश्चित कराना बना चुनौती

सुधांशु द्विवेदी    

लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

 भारतीय लोकतंत्र के महायज्ञ रूपी लोकसभा चुनावों के लिये चार चरणों का मतदान संपन्न होने के बाद शेष चरणों का मतदान भी निष्पक्ष व निर्विध्न रूप से संपन्न कराने में चुनाव आयोग को कामयाबी अवश्य हासिल होगी लेकिन वास्तव में देखा जाये तो यह समूची निर्वाचन प्रक्रिया किसी चुनौती से कम नहीं है। क्यों कि एक तरफ जहां राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं द्वारा राष्ट्रीय सरोकारों को नजरअंदाज करके स्तरहीन मुद्दों के माध्यम से घात-प्रतिघात व साम, दाम, दंड, भेद के सहारे अपनी राजनीतिक संभावनाओं को परवान चढ़ाने की कोशिशें की जा रही हैं वहीं मतदान के दिनों में ही छत्तीसगढ़ में हुआ नक्सली हमला भी चिंता की नई लकीरें खींच गया है। क्यों कि छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित बस्तर लोकसभा क्षेत्र में मतदान के दो दिनों बाद नक्सलियों ने अलग-अलग घटनाओं में मतदान दल और पुलिस दल पर हमला किया, जिसमें केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के पांच पुलिसकर्मियों समेत 13 लोगों की मौत हो गई और पांच पुलिसकर्मी समेत 11 लोग घायल हो गए। नक्सल प्रभावित राज्यों की चुनावी प्रक्रिया संपन्न कराने के लिये अतिरिक्त सतर्कता बरतने वाले निर्वाचन आयोग पुख्ता सुरक्षा व्यवस्था के साथ बंदूक का जवाब संदूक अर्थात मतपेटी से देने मतलब नक्सलियों द्वारा मतदान प्रक्रिया में बाधा डालने की धमकी देने के बावजूद खासकर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के मतदाताओं को अधिकाधिक मतदान सुनिश्चित कराने में भले ही सफलता हासिल कर रहा है लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि व्यापक सुरक्षा इंतजामों के बावजूद नक्सली इस प्रकार अपनी नापाक एवं कायराना हरकतों को अंजाम देने में सफल क्यों हो जाते हैं। आखिर व्यवस्था में व्याप्त ऐसी कौन सी विसंगतियां हैं, जिनके चलते नक्सलवाद को कुचलने के प्रयास कामयाब नहीं हो पा रहे हैं तथा नक्सलियों द्वारा आमजनों व मतदानकर्मियों तक को नहीं बख्शा जा रहा है। यह कैसी विडंबना है कि एक तरफ तो राजनीतिक दल एवं उनके नेता मुख्यरूप से राष्ट्रीय सुरक्षा और राजनीति में नैतिक मूल्यों को सुदृढ़ बनाने के मुद्दे को लेकर ही लोकसभा चुनाव लडऩे का दावा कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर इन्हीं दोनों मुद्दों से संबंधित विभिन्न पहलू निर्वाचन आयोग की चिंता के बावजूद लोकतांत्रिक मूल्यों एवं राष्ट्रीय सरोकारों को बेजार कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ के ताजातरीन नक्सली हमले और लोकसभा चुनाव में देश में चल रही राजनीतिक अराजकता व मूल्यहीनता की चर्चा इसलिये एक-दूसरे के परिपेक्ष्य में किया जाना जरूरी है क्यों कि राजनेता यदि इसी प्रकार राजनीतिक संस्कारों व श्रेष्ठ परंपराओं को नजरअंदाज करते हुए सिर्फ सत्ता प्राप्त करने की उत्कंठा से प्रेरित होकर काम करेंगे तथा राजनीतिक विरोधियों को दुश्मन मानकर उनको चारित्रिक क्षति पहुंचाने की मानसिकता भी उनकी कार्यपद्धति में झलकेगी तो फिर देश और समाज का भला हरगिज नहीं होने वाला। फिर न तो नक्सलवाद के समूल सफाये की दिशा में देश की राजनीतिक बिरादरी के बीच आम सहमति बनाने की कोई कोशिश कामयाब हो पायेगी और न ही समाज के दबे, कुचले तथा शोषित, पीडि़त लोगों के लिये सामाजिक न्याय की प्रक्रिया ही पूरी हो पायेगी। राजनेताओं के लिये इस बात पर गंभीरतापूर्वक विचार करना जरूरी है कि नक्सली अगर शांतिपूर्ण व रक्तपात रहित सामाजिक व्यवस्था को चुनौती दे रहे हैं तो राजनीतिक मठाधीशों का नैतिक अवमूल्यन सीधे तौर पर लोकतंत्र को आधात पहुंचा रहा है। कोई किसी के विवाहित या अविवाहित होने के मुद्दे को अतिरंजित तरीके से विवादों में घसीटकर उससे वोटों की फसल काटने की कोशिश कर रहा है तो कोई विरोधी राजनीतिक दलों व नेताओं की पत्नी, प्रेमिका या पूर्व प्रेमिका को ही आधार बनाकर चुनावी फतह हासिल करने को आतुर है। चूंकि इन संदर्भों  पर अनावश्यक चर्चा करना अपने संस्कारों में वर्जित है इसलिये ज्यादा कुछ कहा जाना ठीक नहीं है लेकिन सवाल यह उठता है कि  स्तरहीन और गैरजरूरी विषयों की जगह भ्रष्टाचार, सुशासन, सुरक्षा तथा महंगाई जैसे मुद्दों को चुनावी बहस का विषय बनाने की ईमानदारीपूर्ण कोशिशें क्यों नहीं अंजाम दी जा रही हैं। राजनेताओं द्वारा अपने राजनीतिक फायदे के लिये विरोधियों की चरित्र हत्या एवं उनके साथ वैमनस्यपूर्ण बर्ताव तो किया ही जा रहा है, अपने सहयोगियों, पूर्व सहयोगियों तथा पथ प्रदर्शकों की पगड़ी उछालने में भी कोई कसर बाकी नहीं रखी जा रही है। जैसे अब आम आदमी पार्टी के फाउंडर मेंबर रहे अश्विनी उपाध्याय द्वरा एक बार फिर अरविंद केजरीवाल को सवालों के घेरे में खड़ा किया गया है। उन्होंने अरविंद केजरीवाल से पूछा है कि केजरीवाल उस वक्त कांग्रेस के नेता रहे और इस वक्त आम आदमी पार्टी के दिल्ली संयोजक आशीष तलवार के साथ जर्मनी क्यों गए थे? आम आदमी पार्टी के 600 फुल टाइम पेड वॉलंटियर्स को 25 हजार रुपये प्रतिमाह सैलरी कौन देता है? सिर्फ 15 को ही चेक से क्यों पेमेंट दी जाती है? अरविंद केजरीवाल ने क्यों संतोष कोली के मर्डर की सीबीआई जांच की मांग या सिफारिश क्यों नहीं की, जबकि पूरे दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान वह इस मुद्दे को उठा रहे थे? केजरीवाल कभी फोर्ड फाउंडेशन द्वारा फंड किए जा रहे एनजीओ की जांच की मांग क्यों नहीं करते? 2013 में एनजीओ को 11,500 करोड़ रुपये मिले, लेकिन सिर्फ 2 प्रतिशत ने रिटर्न फाइल किया है। सवाल यह उठता है कि आखिर उपाध्याय ने आम आदमी पार्टी में रहते हुए ही पार्टी फोरम के अंदर केजरीवाल से यह सवाल क्यों नहीं पूछे? कहीं केजरीवाल के प्रति उनका इरादा दुराग्रह व पूर्वाग्रह से प्रेरित तो नहीं है। इसी प्रकार आम आदमी पार्टी के पूर्व नेता व विधायक विनोद कुमार बिन्नी ने केजरीवाल को वाराणसी में भी घेरने की बात कही है। इसी तरह और भी ऐसे तमाम प्रकरण हैं जहां राजनेता कहीं अपने विरोधियों तो कहीं निकट सहयोगी रहे लोगों के हमलों से खुद को असहज महसूस कर रहे हैं। पिछले दिनों समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने दुराचार व दुराचारियों के संदर्भ में ऐसा बयान दे दिया कि समाजवादी विचारधारा के प्रवर्तक डॉ. राम मनोहर लोहिया के अन्य अनुयाई भी आश्चर्यचकित रह गये होंगे। अब मुलायम द्वारा भले ही अपनी बातों को तोड़-मरोडक़र प्रस्तुत किये जाने की तोहमत मीडिया पर मढ़ी जाये लेकिन ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर उन्हें बखेड़ा खड़ा करने की आवश्यकता आखिर क्या थी। स्पष्ट है कि सस्ती लोकप्रियता हासिल करने व सुर्खियों में बने रहने के लिये यदि स्तरहीन हथकंडों का सहारा इसी तरह लिया जाता रहेगा तब तो देश की लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को सर्वव्यापी व सर्वस्पर्शी बनाने के सपने को तो ग्रहण लग ही जायेगा साथ ही नेताओं की विश्वसनीयता का संकट गहराने के साथ ही नक्सलवाद व अन्य समस्याओं का समाधान भी नहीं हो पायेगा।

Thursday 10 April 2014



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Tuesday 8 April 2014



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Monday 7 April 2014



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