Sunday 13 April 2014

निष्पक्ष एवं निर्बाध मतदान सुनिश्चित कराना बना चुनौती

सुधांशु द्विवेदी    

लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

 भारतीय लोकतंत्र के महायज्ञ रूपी लोकसभा चुनावों के लिये चार चरणों का मतदान संपन्न होने के बाद शेष चरणों का मतदान भी निष्पक्ष व निर्विध्न रूप से संपन्न कराने में चुनाव आयोग को कामयाबी अवश्य हासिल होगी लेकिन वास्तव में देखा जाये तो यह समूची निर्वाचन प्रक्रिया किसी चुनौती से कम नहीं है। क्यों कि एक तरफ जहां राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं द्वारा राष्ट्रीय सरोकारों को नजरअंदाज करके स्तरहीन मुद्दों के माध्यम से घात-प्रतिघात व साम, दाम, दंड, भेद के सहारे अपनी राजनीतिक संभावनाओं को परवान चढ़ाने की कोशिशें की जा रही हैं वहीं मतदान के दिनों में ही छत्तीसगढ़ में हुआ नक्सली हमला भी चिंता की नई लकीरें खींच गया है। क्यों कि छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित बस्तर लोकसभा क्षेत्र में मतदान के दो दिनों बाद नक्सलियों ने अलग-अलग घटनाओं में मतदान दल और पुलिस दल पर हमला किया, जिसमें केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के पांच पुलिसकर्मियों समेत 13 लोगों की मौत हो गई और पांच पुलिसकर्मी समेत 11 लोग घायल हो गए। नक्सल प्रभावित राज्यों की चुनावी प्रक्रिया संपन्न कराने के लिये अतिरिक्त सतर्कता बरतने वाले निर्वाचन आयोग पुख्ता सुरक्षा व्यवस्था के साथ बंदूक का जवाब संदूक अर्थात मतपेटी से देने मतलब नक्सलियों द्वारा मतदान प्रक्रिया में बाधा डालने की धमकी देने के बावजूद खासकर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के मतदाताओं को अधिकाधिक मतदान सुनिश्चित कराने में भले ही सफलता हासिल कर रहा है लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि व्यापक सुरक्षा इंतजामों के बावजूद नक्सली इस प्रकार अपनी नापाक एवं कायराना हरकतों को अंजाम देने में सफल क्यों हो जाते हैं। आखिर व्यवस्था में व्याप्त ऐसी कौन सी विसंगतियां हैं, जिनके चलते नक्सलवाद को कुचलने के प्रयास कामयाब नहीं हो पा रहे हैं तथा नक्सलियों द्वारा आमजनों व मतदानकर्मियों तक को नहीं बख्शा जा रहा है। यह कैसी विडंबना है कि एक तरफ तो राजनीतिक दल एवं उनके नेता मुख्यरूप से राष्ट्रीय सुरक्षा और राजनीति में नैतिक मूल्यों को सुदृढ़ बनाने के मुद्दे को लेकर ही लोकसभा चुनाव लडऩे का दावा कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर इन्हीं दोनों मुद्दों से संबंधित विभिन्न पहलू निर्वाचन आयोग की चिंता के बावजूद लोकतांत्रिक मूल्यों एवं राष्ट्रीय सरोकारों को बेजार कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ के ताजातरीन नक्सली हमले और लोकसभा चुनाव में देश में चल रही राजनीतिक अराजकता व मूल्यहीनता की चर्चा इसलिये एक-दूसरे के परिपेक्ष्य में किया जाना जरूरी है क्यों कि राजनेता यदि इसी प्रकार राजनीतिक संस्कारों व श्रेष्ठ परंपराओं को नजरअंदाज करते हुए सिर्फ सत्ता प्राप्त करने की उत्कंठा से प्रेरित होकर काम करेंगे तथा राजनीतिक विरोधियों को दुश्मन मानकर उनको चारित्रिक क्षति पहुंचाने की मानसिकता भी उनकी कार्यपद्धति में झलकेगी तो फिर देश और समाज का भला हरगिज नहीं होने वाला। फिर न तो नक्सलवाद के समूल सफाये की दिशा में देश की राजनीतिक बिरादरी के बीच आम सहमति बनाने की कोई कोशिश कामयाब हो पायेगी और न ही समाज के दबे, कुचले तथा शोषित, पीडि़त लोगों के लिये सामाजिक न्याय की प्रक्रिया ही पूरी हो पायेगी। राजनेताओं के लिये इस बात पर गंभीरतापूर्वक विचार करना जरूरी है कि नक्सली अगर शांतिपूर्ण व रक्तपात रहित सामाजिक व्यवस्था को चुनौती दे रहे हैं तो राजनीतिक मठाधीशों का नैतिक अवमूल्यन सीधे तौर पर लोकतंत्र को आधात पहुंचा रहा है। कोई किसी के विवाहित या अविवाहित होने के मुद्दे को अतिरंजित तरीके से विवादों में घसीटकर उससे वोटों की फसल काटने की कोशिश कर रहा है तो कोई विरोधी राजनीतिक दलों व नेताओं की पत्नी, प्रेमिका या पूर्व प्रेमिका को ही आधार बनाकर चुनावी फतह हासिल करने को आतुर है। चूंकि इन संदर्भों  पर अनावश्यक चर्चा करना अपने संस्कारों में वर्जित है इसलिये ज्यादा कुछ कहा जाना ठीक नहीं है लेकिन सवाल यह उठता है कि  स्तरहीन और गैरजरूरी विषयों की जगह भ्रष्टाचार, सुशासन, सुरक्षा तथा महंगाई जैसे मुद्दों को चुनावी बहस का विषय बनाने की ईमानदारीपूर्ण कोशिशें क्यों नहीं अंजाम दी जा रही हैं। राजनेताओं द्वारा अपने राजनीतिक फायदे के लिये विरोधियों की चरित्र हत्या एवं उनके साथ वैमनस्यपूर्ण बर्ताव तो किया ही जा रहा है, अपने सहयोगियों, पूर्व सहयोगियों तथा पथ प्रदर्शकों की पगड़ी उछालने में भी कोई कसर बाकी नहीं रखी जा रही है। जैसे अब आम आदमी पार्टी के फाउंडर मेंबर रहे अश्विनी उपाध्याय द्वरा एक बार फिर अरविंद केजरीवाल को सवालों के घेरे में खड़ा किया गया है। उन्होंने अरविंद केजरीवाल से पूछा है कि केजरीवाल उस वक्त कांग्रेस के नेता रहे और इस वक्त आम आदमी पार्टी के दिल्ली संयोजक आशीष तलवार के साथ जर्मनी क्यों गए थे? आम आदमी पार्टी के 600 फुल टाइम पेड वॉलंटियर्स को 25 हजार रुपये प्रतिमाह सैलरी कौन देता है? सिर्फ 15 को ही चेक से क्यों पेमेंट दी जाती है? अरविंद केजरीवाल ने क्यों संतोष कोली के मर्डर की सीबीआई जांच की मांग या सिफारिश क्यों नहीं की, जबकि पूरे दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान वह इस मुद्दे को उठा रहे थे? केजरीवाल कभी फोर्ड फाउंडेशन द्वारा फंड किए जा रहे एनजीओ की जांच की मांग क्यों नहीं करते? 2013 में एनजीओ को 11,500 करोड़ रुपये मिले, लेकिन सिर्फ 2 प्रतिशत ने रिटर्न फाइल किया है। सवाल यह उठता है कि आखिर उपाध्याय ने आम आदमी पार्टी में रहते हुए ही पार्टी फोरम के अंदर केजरीवाल से यह सवाल क्यों नहीं पूछे? कहीं केजरीवाल के प्रति उनका इरादा दुराग्रह व पूर्वाग्रह से प्रेरित तो नहीं है। इसी प्रकार आम आदमी पार्टी के पूर्व नेता व विधायक विनोद कुमार बिन्नी ने केजरीवाल को वाराणसी में भी घेरने की बात कही है। इसी तरह और भी ऐसे तमाम प्रकरण हैं जहां राजनेता कहीं अपने विरोधियों तो कहीं निकट सहयोगी रहे लोगों के हमलों से खुद को असहज महसूस कर रहे हैं। पिछले दिनों समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने दुराचार व दुराचारियों के संदर्भ में ऐसा बयान दे दिया कि समाजवादी विचारधारा के प्रवर्तक डॉ. राम मनोहर लोहिया के अन्य अनुयाई भी आश्चर्यचकित रह गये होंगे। अब मुलायम द्वारा भले ही अपनी बातों को तोड़-मरोडक़र प्रस्तुत किये जाने की तोहमत मीडिया पर मढ़ी जाये लेकिन ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर उन्हें बखेड़ा खड़ा करने की आवश्यकता आखिर क्या थी। स्पष्ट है कि सस्ती लोकप्रियता हासिल करने व सुर्खियों में बने रहने के लिये यदि स्तरहीन हथकंडों का सहारा इसी तरह लिया जाता रहेगा तब तो देश की लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को सर्वव्यापी व सर्वस्पर्शी बनाने के सपने को तो ग्रहण लग ही जायेगा साथ ही नेताओं की विश्वसनीयता का संकट गहराने के साथ ही नक्सलवाद व अन्य समस्याओं का समाधान भी नहीं हो पायेगा।

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