Thursday 17 April 2014


किंगमेकर बनने को बेताब हैं क्षेत्रीय दल

सुधांशु द्विवेदी
लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

देश के मौजूदा लोकसभा चुनाव के पांचवें चरण का मतदान होने के साथ ही चुनाव बाद उभरने वाली राजनीतिक तस्वीर और आकार लेने वाले समीकरणों के संदर्भ में सभी राजनीतिक दलों में गहन चिंतन-मंथन होना स्वाभाविक है लेकिन वर्ष 2004 व 2009 के लोकसभा चुनावों को मद्देनजर रखकर भी यदि पूरे परिदृश्य का आकलन किया जाये तो एक तथ्य आसानी से स्पष्ट हो जाता है कि देश की सत्ता के निर्धारण में क्षेत्रीय दल हमेशा ही किंगमेकर की भूमिका में रहते हैं। हालाकि क्षेत्रीय दलों की भूमिका कई बार दबाव की राजनीति व स्वहितों के संदर्भ में अतिरंजित रवैये की भी झलक दिखाती है जो राष्ट्रहित एवं लोक सरोकारों की दृष्टि से खतरे का संकेत भी है। राष्ट्रीय राजनीतिक दलों द्वारा राष्ट्रीय मुद्दों तथा अन्य लोक सरोकारों को अपने चुनावी अभियान में शामिल किया जाता है जबकि क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की नजर में क्षेत्रीय अस्मिता व संबंधित राज्य विशेष से जुड़े मुद्दे ही उनकी चुनावी बढ़त सुनिश्चत करने में प्रभावी भूमिका निभाते हैं। मध्यप्रदेश, छत्ताीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड जैसे राज्यों में भले ही चुनावी मुकाबला राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के बीच रहता है लेकिन तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार, सहित कई अन्य राज्य हैं जहां क्षेत्रीय राजनीतिक दल संबंधित राज्य की सत्ता की बागडोर संभालने का तो सौभाग्य प्राप्त कर ही रहे हैं, उनके समर्थन के बिना केन्द्रीय सत्ता का निर्धारण भी नहीं हो पाता। केन्द्र की सत्ता में अपनी प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका तय होने से पहले यह दल भविष्य में होने वाले राजनीतिक नफा-नुकसान का आकलन करने के साथ ही केन्द्र सरकार को समर्थन देने के बदले में अपने प्रभाव वाले राज्य के हितों से जुड़ी प्रतिबद्धताओं व शर्तों के संदर्भ में अपना नजरिया स्पष्ट कर देते हैं। यही कारण है कि केन्द्र की सत्ता में सहयोगी दल की भूमिका निभाने की स्थिति में क्षेत्रीय दल हमेशा ही फायदे में रहते हैं वहीं केन्द्रीय सत्ता की अगुवाई करने वाले राजनीतिक दल के मार्ग में आने वाले झंझावातों का भी उनकी सेहत पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है। तमिलनाडु राज्य में वैसे तो कई क्षेत्रीय दल सक्रिय हैं लेकिन वहां मुख्य मुकाबला राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री एम.करुणानिधि के नेतृत्व वाली पार्टी द्रमुक व राज्य की मौजूदा मुख्यमंत्री जयललिता के नेतृत्व वाली पार्टी अन्नाद्रमुक के बीच रहता है। इसके अलावा वहां पीएमके, एमडीएमके जैसी क्षेत्रीय पार्टियां भी अपना राजनीतिक आधार सिद्ध करने के लिये संघर्ष करती रहती हैं लेकिन उनका प्रभाव सीमित ही है। करुणानिधि के नेतृत्व वाली पार्टी द्रमुक केन्द्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की सहयोगी पार्टी रही है लेकिन बाद में करुणानिधि की बेटी कनिमोझी व करीबी रिश्तेदार तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री ए. राजा व दयानिधि मारन का नाम टेलीकाम घोटाले में सामने आने के बाद करुणानिधि को काफी फजीहत झेलनी पड़ी तथा अब वह मौजूदा लोकसभा चुनाव में फिर से अपना राजनीतिक वर्चस्व तमिलनाडु में सिद्ध करने के लिये प्रयासरत हैं। लोकसभा चुनाव के संदर्भ में करुणानिधि का प्रयास यही है कि उनकी पार्टी डीएमके को राज्य की अधिकाधिक लोकसभा सीटें जीतने में सफलता हासिल हो जाये ताकि वह लोकसभा चुनाव बाद केन्द्र में बनने वाली सरकार में अपनी प्रभावी हैसियत के आधार पर किंगमेकर के रूप में अपनी भूमिका तय कर सकें। करुणानिधि यूपीए व कांग्रेस के ज्यादा करीब आज भी नजर आ रहे हैं क्यों कि भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं द्वारा अपनी आलोचना किये जाने से वह काफी आहत हैं तथा संभावना यही है कि वह लोकसभा चुनाव बाद यूपीए के पाले में शामिल होकर ज्यादा राहत महसूस करेंगे। हालाकि तमिलनाडु राज्य की राजनीति में करुणानिधि के सामने चुनौतियां भी कम नहीं हैं। एक तरफ तो उनके परिवार में छिड़ा सत्ता संघर्ष चरम पर है वहीं राज्य की मुख्यमंत्री जयललिता के नेतृत्व वाली पार्टी अन्नाद्रमुक द्वारा भी उनके मार्ग में मुश्किलें पेश की जा रही हैं। क्यों कि अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता पहले ही खुद को प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल करके भविष्य की राजनीति के संदर्भ में अपने मजबूत इरादों का संकेत दे चुकी हैं वहीं लोकसभा चुनाव के बाद उनका प्रयास यही रहेगा कि यदि वह प्रधानमंत्री नहीं भी बन पाती हैं तो केन्द्र सरकार का गठन तो कम से कम उन्हीं के समर्थन की बदौलत हो। इसी प्रकार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी भी खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मान रही हैं, इस सिलसिले में वह काफी कवायद भी कर चुकी हैं। जिसके तहत एकाध माह पूर्व ही उन्होंने खुद के प्रधानमंत्री पद का दावेदार होने के संदर्भ में राष्ट्रव्यापी संदेश देने के लिये दिल्ली में गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के नेतृत्व में रैली आयोजित करने की कवायद की थी लेकिन अंतत: इस रैली में अन्ना के शामिल नहीं होने तथा अपेक्षानुरूप भीड़ भी एकत्रित नहीं होने के कारण ममता की उम्मीदों पर पानी फिर गया था। पश्चिम बंगाल राज्य की मुख्यमंत्री बनने से पहले केन्द्र में रेल मंत्री भी रह चुकीं ममता बैनर्जी की भी कोशिश यही है कि वह अपने गृहराज्य में लोकसभा की अधिकाधिक सीटें जीतकर केन्द्र की सत्ता में अपनी मजबूत दावेदारी जताएं तथा खुद के प्रधानमंत्री न बन पाने की स्थिति में भी वह केन्द्र में अपनी पार्टी के कोटे के मंत्री पदों व पश्चिम बंगाल राज्य के लिये आर्थिक पैकेज आदि के मामले में प्रभावी तरीके से अपनी बातें मनवा सकें। चूंकि ममता की धर्म निरपेक्ष विचारधारा जगजाहिर है इसलिये लोकसभा चुनाव के बाद उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस एनडीए को समर्थन नहीं देगी, ममता बैनर्जी इस बावत घोषणा भी कर चुकी हैं। इस दृष्टि से वह यूपीए के करीब ही अपने लिये संभावनाएं तलासेंगी, ऐसे आसार स्पष्ट नजर आ रहे हैं। बिहार में अपना चुनावी दमखम दिखा रही राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव के नेतृत्व वाली पार्टी राष्ट्रीय जनता दल को भी इस लोकसभा चुनाव में काफी उम्मीदें हैं। लालू की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का कांग्रेस के साथ सीटों का बंटवारा हुआ है, लालू यादव का भी प्रयास यही है कि उनकी पार्टी कांग्रेस के साथ मिलकर राज्य की 40 लोकसभा सीटों में से अधिकांश पर अपनी चुनावी फतह सुनिश्चत कर ले ताकि केन्द्रीय सत्ता में उनका रुतबा व दबदबा बरकरार रहे। लोकसभा के पांचवें चरण में बिहार की जिन लोकसभा सीटों में मतदान हुआ है उनमें लालू यादव की बेटी मीसा भारती की लोकसभा सीट पाटलिपुत्र भी शामिल है। इसके अलावा पांचवें चरण में ही कर्नाटक की हासन लोकसभा सीट के लिये भी मतदान हुआ है जहां पूर्व प्रधानमंत्री और जनता दल सेक्युलर के सुप्रीमों एचडी देवगौड़ा अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। देवगौड़ा भी लोकसभा चुनाव में कर्नाटक राज्य में अपनी पार्टी की धमाकेदार जीत सुनिश्चित करने की मंशा से काम कर रहे हैं। ऐसे ही हालात अन्य राज्यों के भी हैं जहां प्रभावशाली क्षेत्रीय राजनीतिक दल लोकसभा चुनाव में अपने पक्ष में राजनीतिक चमत्कार सुनिश्चित करके केन्द्र की सत्ता निर्धारण में किंगमेकर की भूमिका निभाने के लिये बेताब हैं।

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