Friday 28 February 2014

तुष्टिकरण के लिये रणबाकुरों का अपमान कर रहे हैं मोदी

सुधांशु द्विवेदी

लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं
गुजरात के मुख्यमंत्री और लोकसभा चुनाव के लिये भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के लिये घोषित उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी द्वारा व्यापारियों को देश के सैनिकों की अपेक्षा अधिक साहसी बताने के बयान ने देशभर में काफी बवाल मचा दिया है तथा देशवासी मोदी के इस बयान को सैनिकों के अपमान के रूप में देख रहे हैं। मोदी के इस बयान के बाद देशभक्तों में आक्रोश पैदा होना स्वाभाविक है क्यों कि वह देश की रक्षा तथा एकता और अखंडता को अछुण्य बनाये रखने में सैनिकों के उत्कृष्ट योगदान से भली भांति वाकिफ हैं वहीं उन्हें यह भी अच्छी तरह ज्ञात है कि राजनीतिक फायदे के लिये व्यापारियों के तुष्टिकरण के उद्देश्य से नरेन्द्र मोदी ने सैनिकों को अपमानित करने वाला यह जो बयान दिया है उससे देश की हिफाजत के लिये मर मिटने का जज्बा रखने वाले रणबाकुरों केमनोबल पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और अरब सागर से लेकर बंगाल की खाड़ी तक देश की सीमाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने में देश के जांबाज सैनिकों को जहां चीन और पाकिस्तान जैसे दुश्मन देशों की गिद्धदृष्टि से प्रतिदिन जूझना पड़ता है वहीं देश प्रेम का जज्बा लिये भारतीय सैनिक किसी भी परिस्थिति में देश के दुश्मनों को मुंहतोड़ जवाब देने के लिये तैयार रहते हैं। कई बार सैन्य अनुशासन और देश के राजनीतिक नेतृत्व द्वारा निर्धारित वर्जनाएं सैनिकों को दुश्मनों पर खुलकर आक्रामक कार्यवाही करने से भी रोकती हैं,इसके बावजूद देश के यह सपूत कभी भी अपने कर्तव्यपथ से विमुख नहीं होते। लेकिन अब देश के नेताओं द्वारा सैनिकों पर भी राजनीतिक बयानबाजी का दौर शुरू किये जाने से स्पष्ट हो गया है कि देश की राजनीति पूरी तरह सत्ता एवं स्वार्थ आधारित हो गई है तथा इसमें मान्यताओं, परंपराओं तथा मूल्यों के लिये शायद कोई स्थान नहीं रह गया है। देश का बुद्धिजीवी वर्ग यह तो अच्छी तरह जानता है कि देश के इतिहास,भूगोल, लोकतांत्रिक शासन प्रणाली तथा देश के कानून आदि के संदर्भ में राजनीतिक नुमाइंदों द्वारा यदि गैर जिममेदारीपूर्ण व विरोधाभाषी बयानबाजी की गई तो देशहित की दृष्टि से इसके नतीजे अत्यंत घातक होंगे तथा  लोगों के बीच सनसनी फैलाने तथा सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिये स्तरहीन जुमलों और तथ्यहीन व औचित्यहीन बयानों का सहारा लिया जाना किसी भी दृष्टि से राष्ट्रहित में नहीं है। मोदी द्वारा अपने राजनीतिक विरोधियों पर सियासी हमला करने के लिये आपत्तिजनक एवं अपमानजनक शब्दावली का इस्तेमाल तो काफी समय से किया जा रहा है तथा अन्य राजनीतिक नुमाइंदे भी अपने राजनीतिक फायदे के लिये ऐसे ही हथकंडे अपनाते हैं लेकिन अब देश के सैनिकों को ही व्यापारियों से कम साहसी बताकर उन्होने यह सिद्ध कर दिया है कि वह वैचारिक एवं नैतिक दिशाहीनता के पूरी तरह शिकार हो चुके हैं। निकट भविष्य में होने वाले लोकसभा चुनावों के मद्देनजर देश के राजनीतिक सूरमाओं के बीच अभी तो आरोप-प्रत्यारोप का दौर और तेज होगा लेकिन कम से कम भारतीय सेना व सैनिकों को तो इस राजनीतिक संग्राम में घसीटने की कोशिश नहीं ही होनी चाहिये क्यों कि खुद का अपमान होते देख यदि देश की सेना व सैनिक ही अपने कर्तव्यपथ पर पूरी तन्मयता और गंभीरतापूर्वक कैसे अग्रसर हो पायेंगे। इस स्थिति में जब देश मिटेगा तो फिर कौन बचेगा। फिर लोकतंत्र कैसे सुरक्षित रहेगा। देश के लोकतांत्रिक ढांचे के छिन्न-भिन्न होने की स्थिति में संसद की क्या प्रासंगिकता और उपयोगिता बचेगी। फिर देश के प्रधानमंत्री या प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार व अन्य सियासी सूरमा देश के भाग्य और भविष्य के निर्धारण में खुद को किस भूमिका में पायेंगे, आदि विषयों पर गहन चिंतन जरूरी है। देश के स्वनामधन्य नेताओं को चाहिये कि वह अपने आचार और विचारों की उत्कृष्टता कायम रखने के लिये खुद की आचार संहिता निर्धारित करें तथा सियासी फायदे की चिंता में लोकतांत्रिक मूल्यों व राष्ट्रहित को छिन्न-भिन्न करने की कोशिश के बजाय अपनी नैतिक एवं वैचारिक पृष्ठभूमि को मजबूत बनाएं। यदि उन्होंने यह चिरपोषित व दुर्लभ कवायद पूुरी कर ली तो फिर उन्हें श्रेष्ठ राजनीतिक मुकाम व सोहरत हासिल करने के लिये अतिरिक्त जद्दोजहद नहीं करनी पड़ेगी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को शहस्त्राब्दी पुरुष माना जाता है तथा उन्होंने सत्य और अहिंसा का मार्ग अपनाकर न सिर्फ देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्ति दिलाई अपितु संपूर्ण विश्ववासियों के बीच श्रेष्ठ आदर्शों की स्थापना की। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी अमर हो गये तथा आगे भी वह लाखों लाख भारतीयों और विश्ववासियों के लिये प्रेरणास्त्रोत बने रहेंगे लेकिन इतिहास गवाह है कि गांधी जी ने ख्याति के अमरत्व की यह विशिष्टता हासिल करने के लिये कभी अवांछनीय गतिविधियों और ओछे बयानों का सहारा नहीं लिया तथा इच्छित मुकाम हासिल करने के लिये उन्हें कभी अतिरिक्त जद्दोजह भी नहीं करनी पड़ी । देश के प्रथम गृहमंत्री रहे सरदार वल्लभ भाई पटेल को लौहपुरुष माना गया है। अपने व्यक्तित्व की विशिष्टता और विचारों की दृढ़ता की बदौलत ही सरदार पटेल लौहपुरुष कहलाए लेकिन उन्होने कभी भी किसी का तुष्टिकरण या उत्पीडऩ नहीं किया। देशभर में घूम घूमकर सरदार पटेल के विचारों की अलख जगाने का दावा करने वाले राजनीतिक नुमाइंदे सरदार पटेल के आदर्शों को अपने आचरण में आत्मसात क्यों नहीं करते। इन दो महापुरुषों के साथ-साथ देश हित में अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले अन्य बलिदानी महापुरुषों का भी देश के इतिहास में नाम अमर है तो कम से कम देश के इतिहास में स्थापित महापुरुषों से देश के राजनीतिक नुमाइंदों को कुछ प्रेरणा लेकर उनके द्वारा स्थापित मार्ग में दो-चार कदम चलने की कोशिश तो करना ही चाहिये। यदि इस मामले में ही सत्ता के लालची राजनीतिक नुमाइंदों को किंचित सफलता ही हासिल हो गई तो यह देशहित में उनका बड़ा योगदान माना जायेगा। राजनीतिक फायदे के लिये सेना व सैनिकों को सियासी विवादों में घसीटना बिलकुल ही ठीक नहीं है तथा लोकतंत्र के हित में देश की राजनीति यदि साधना है तो राजनीतिज्ञों को सच्चा साधक बनना पड़ेगा, देश का आम चुनाव यदि लोकतंत्र का महायज्ञ है तो इसकी सकुश
ल संपन्नता के लिये गरिमापूर्ण वातावरण ही विकसित किया जाना चाहिये क्यों कि सुविधा व दुविधापरस्त प्रवृत्ति कभी भी देश का भला नहीं कर सकती।




Wednesday 26 February 2014

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Monday 24 February 2014

दबंग दुनिया में

प्रकाशित सुधांशु द्विवेदी का लेख



सियासत की पिच पर धुंआधार बैटिंग करेंगे सिंधिया

सुधांशु द्विवेदी

मध्यप्रदेश के राजनीतिक क्षितिज के दैदीप्यमान सितारे केन्द्रीय मंत्री ज्योतरादित्य सिंधिया को भारतीय जनता पार्टी द्वा
रा घेरने के लिये भारतीय जनता पार्टी द्वारा चक्रव्यूह रचने की कवायद लगातार की जा रही है लेकिन मौजूदा राजनीतिक हालात खुलकर यह संकेत दे रहे हैं कि सिंधिया को चुनावी सिकस्त दे पाना भारतीय जनता पार्टी के लिये मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन साबित होगा। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी एवं पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी के नवरत्नों में सुमार केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया वैसे तो समूचे मध्यप्रदेश में ही यूथ आईकान के रूप में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित कर चुके हैं लेकिन ग्वालियर चंबल क्षेत्र में तो सिंधिया को राजनीतिक मूल्यों का अग्रदूत तथा विकास एवं जनकल्याण का स्तंभ ही माना जाता है। पूरी प्रतिबद्धता एवं प्रमाणिकता के साथ जनसेवा एवं लोककल्याण के नित नये आयाम स्थापित करने वाले सिंधिया ने सांसद एवं केन्द्रीय मंत्री के रूप में अपने पूरे कार्यकाल में क्षेत्र के जनता-जनार्दन को हमेशा विकासपरक सौगातों से नवाजने का काम किया है। यही कारण है कि निकट भविष्य में होने वाले लोकसभा चुनाव में अपनी ऐतिहासिक विजयश्री सुनिश्चित करने के लिये सिंधिया को अतिरिक्त मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। मेरा मानना है कि ज्योतरादित्य सिंधिया चाहे गुना-शिवपुरी संसदीय क्षेत्र से चुनाव मैदान में उतरें या फिर ग्वालियर सीट से चुनावी भाग्य आजमायें, उनकी विजय सुनिश्चित है। सिंधिया समर्थकों के अपार उत्साह तथा क्षेत्रीय जनमानस के बीच केन्द्रीय मंत्री की निरंतर बढ़ती लोकप्रियता के सामने भारतीय जनता पार्टी के सभी सियासी समीकरणों के फेल होने का अंदाजा जनमानस को पहले से ही है। साथ ही भाजपा से लेकर संघ खेमे तक में सिंधिया को लेकर बढ़ी बेचैनी उनके पक्ष में पिछले चुनाव से भी ज्यादा मतदाताओं के ध्रुवीकरण का सकेत दे रही है। कहने का तात्पर्य यह है कि सिंधिया इस मर्तबा के लोकसभा चुनाव में और भी ज्यादा मतों के अंतर से चुनाव जीतने में कामयाब होंगे। राजनीति को लोकनीति का स्थायी स्वरूप देने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया ने विकास प्रक्रिया को हमेशा ही दलगत राजनीति से दूर रखा है तथा केन्द्रीय मंत्री के रूप में उनका रवैया मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार के प्रति भी हमेशा सहयोग पूर्ण रहा है यही कारण है कि उनके पुण्य प्रताप की बदौलत उनका राजनीतिक आभामंडल भी निरंतर निखरता गया है। चाहे मामला बिजली परियोजनाओं का रहा हो या प्रदेशवासियों को अन्य सौगातें दिलाने का, सिंधिया ने हमेशा ही सक्रिय, संवदेनशील एवं सजग जन प्रतिनिधि के रूप में अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन प्रभावी ढंग से किया है। यही कारण है कि मौजूदा लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने अन्य लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के लिये अपने उम्मीदवार अघोषित तौर पर तय कर लिये हों लेकिन सिंधिया के खिलाफ पार्टी अभी तक कोई प्रत्याशी नहीं तलाश पाई है। भ्रष्टाचार एवं अवसरवादिता को लोकतंत्र एवं जनता-जनार्दन के लिये अभिषाप समझने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया व्यापक जनाधार वाले नेता होने के साथ-साथ प्रखर वक्ता भी हैं, जिनकी बेजोड़ भाषण शैली प्रदेश के अन्य लोकसभा क्षेत्रों के कांग्रेस उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित करने में भी मूल्यवान साबित होगी तथा अपराजेय योद्धा के रूप में श्री सिंधिया के राजनीतिक सितारे और भी बुलंद होंगे क्यों कि सियासत की पिच में ज्योतिरादित्य धुंआधार बैटिंग करेंगे।


Sunday 23 February 2014

दबंग दुनिया समाचार पत्र में प्रकाशित

प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक सुधांशु द्विवेदी का लेख


घातक है राजीव के हत्यारों की रिहाई की पहल

सुधांशु द्विवेदी

लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों की रिहाई के फैसले पर हालाकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोक लगा दी गई है लेकिन इस समूचे घटनाक्रम ने देश की राजनीतिक बिरादरी की दशा और दिशा पर फिर गंभीर प्रश्न खड़ा कर दिया है। राजीव के हत्यारों की रिहाई का फैसला करके खुद को गौरवान्वित महसूस करने वाली तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता का वैसे तो राष्ट्रीय स्तर पर कोई वजूद नहीं है तथा तमिलनाडुमें भी उनका राजनीतिक आभामंडल भी उनकी स्वार्थपरक प्रवृत्ति पर ही केन्द्रित है लेकिन जयललिता ने अपने राज्य में तमिलों के तुष्टिकरण के लिये पूर्व प्रधानमंत्री के कातिलों की रिहाई का फैसला करके यह सिद्ध कर दिया है कि देश के राजनीतिक नुमाइंदे अपने राजनीतिक विरोधियों के प्रति पूरी तरह असहिष्णु तथा नैतिक मूल्यों के प्रति पूर्ण रूपेण उदासीन हो गये हैं और वह अपने राजनीतिक फायदे के लिये अपराधियों को महिमामंडित करने के लिये किसी भी हद तक जा सकते हैं। हालाकि यह तो तय है कि जयललिता फिल्म अभिनेत्री रही हैं तथा उन्हें कानून का ज्यादा ज्ञान नहीं है। साथ ही राजनीतिक जवाबदेही और संवैधानिक प्रतिद्धता का भी उनमें घोर अभाव है लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि, एमडीएमके नेता वाइको सहित देश के वामपंथी दलों के कुछ नेताओं ने भी जयललिता के इस फैसले का समर्थन किया है। राजनीतिक विरोधियों को बर्बरतापूर्वक मौत के घाट उतारने वाले नृशंस हत्यारों के प्रति नेताओं में उमड़ता अति अनुराग यह सिद्ध करने के लिये काफी है कि आगे चलकर वह अपने विरोधियों की हत्या की सुपारी देने का कारनामा भी खुले तौर पर कर सकते हैं और जब कातिलों को सजा दिलाने की बारी आयेगी तो वह ऐसे मामलों में अपनी वास्तविक जवाबदेही और प्रतिबद्धता को पूरा करने के बजाय कातिलों को सिर में बिठाकर घूमेंगे।  वहीं दूसरी ओर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इस पूरे घटनाक्रम पर हैरानी व्यक्त करते हुए कहा है कि जब उनके दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री पिता को न्याय नहीं मिल पाया तो फिर देश के आम आदमी को न्याय कैसे मिलेगा। राहुल गांधी की यह चिंता वाकई में विचारणीय है लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि आखिर इन परिस्थितियों के लिये जिम्मेदार कौन है। राहुल गांधी केन्द्र में सत्ताधारी यूपीए सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं तथा शासन सत्ता सहित संपूर्ण व्यवस्था पर उनका सीधा हस्तक्षेप है तो फिर राहुल गांधी ने समय रहते ऐसे पर्याप्त प्रयास क्यों नहीं किये कि हत्या जैसे जघन्य मामलों के आरोपियों पर जांच एजेंसियों का शिकंजा इस तरह कसे कि अपराधियों पर जांच एजेसियों का शिकंजा इस तरह कसे कि उन्हें अदालत से किसी तरह की राहत मिलने की संभावना ही न बचे। न्यायालय द्वारा फैसले हमेशा ही तथ्यों, तर्कों और प्रमाणों के आलोक में किये जाते हैं तथा खास और आम व्यक्ति को यह उम्मीद रहती है कि उसे इंसाफ के मंदिर में न्याय अवश्य मिलेगा लेकिन कई बार निराशा ही हाथ लगती है। किसी भी मामले में जांच एजेंसी पर यह जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह हत्या जैसे जघन्य अपराधों में किसी भी केस को न्यायालय में किसी भी परिस्थिति में कमजोर ने होने दे। राजीव गांधी के हत्यारों को राहत देने की निरंतर चल रही कोशिशों के बीच यह कहना भी अति आवश्यक है कि तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि और उनकी पार्टी डीएमके वर्षों तक कांग्रेस पार्टी व यूपीए के अभिन्न सहयोगी रहे हैं तथा करुणानिधि व उनके परिजनों एवं रिश्तेदारों ने इस दौरान केन्द्रीय सत्ता का जमकर फायदा उठाया है तथा मालामाल होने के लिये समस्त नैकित और अनैतिक हथकंडे अपनाये हैं तो फिर इन सब परिस्थितियों के बीच कांग्रेस नेता राहुल गांधी व कांग्रेस के अन्य दिग्गज नेताओं ने करुणानिधि पर समय रहते राजीव गांधी हत्याकांड प्रकरण से खुद को दूर रखने का दबाव क्यों नहीं बनाया। तब तो गठबंधन धर्म और राजनीतिक जरूरत के नाम पर जिम्मेदारियों और प्रतिबद्धताओं को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा। सिर्फ इतना ही नहीं तमिलनाडु विधानसभा में तो राजीव गांधी के हत्यारों की रिहाई का प्रस्ताव भी पारित किया गया था। इस प्रस्ताव का भी करुणानिधि एवं उनकी पार्टी द्वारा समर्थन किये जाने के बावजूद कांग्रेस एवं राहुल गांधी ने इस मामले में प्रभावी तरीके से न तो आपत्ति जताई और न ही कोई संवैधानिक कदम उठाया गया। वजह साफ है कि तमिलनाडु में राजनीतिक फायदे के लिये कांग्रेस नेतृत्व ने भी सिर्फ रस्म अदायगी का काम ही पूरा किया जाता रहा तथा अब तमिलनाडु सरकार द्वारा राजीव गांधी के हत्यारों की रिहाई के फैसले के रूप में मामला हाथ से निकल जाने के बाद घडिय़ाली आंसू बहाए जा रहे हैं। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता द्वारा राजीव गांधी के हत्यारों की रिहाई की पहल बेहद दुर्भाग्यपूर्ण एवं घातक है क्यों कि क्षेत्रवाद व राजनीतिक तुष्टिकरण की राजनीतिज्ञों में बढ़ती प्रवृत्ति ने देश में अस्थिरता, अराजकता व वर्ग संघर्ष के हालात को पहले से ही बढ़ावा दे रखा है त
था इस प्रकार यदि हत्यारों की रिहाई का राजनीतिक आदेश देकर उनका महिमामंडन किया जायेगा तो देश का लोकतांत्रिक ढाचा पूरी तरह छिन्न भिन्न हो जायेगा।



चर्चित चेहरों के चुनाव मैदान में उतरने से फायदे में रहेगी आप

सुधांशु द्विवेदी

लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं


दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी ने आगामी लोकसभा चुनाव के लिये अपने बीस उम्मीदवारों की सूची जारी करके राष्ट्रीय राजनीति में अपने धमाकेदार प्रवेश की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया है। देश की राजनीति में अलग तरह के आदर्शों की स्थापना करने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी का प्रयास यह है कि वह आगामी लोकसभा चुनाव में अधिकाधिक सीटें जीतकर शानदार राजनीतिक प्रदर्शन के माध्यम से देश की केन्द्रीय सत्ता के निर्धारण में अग्रणी भूमिका निभाए। देश के मौजूदा राजनीतिक हालात देखकर ऐसा लगता है कि देश के जनता-जनार्दन को साफ-स्वच्छ, निर्विवाद और जनभावनाओं को पूरा करने वाले सशक्त राजनीतिक विकल्प की तलाश तो है। क्यों कि भाजपा के घोषित पीएम इन वेटिंग नरेन्द्र मोदी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के बीच चल रहा आरोप- प्रत्यारोप का दौर उन दोनों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और एक दूसरे को नीचा दिखाने तथा जनमानसस के बीच खुद को श्रेष्ठ साबित करने की उनकी अतिव्यग्रता को तो प्रदर्शित करता है लेकिन उनके द्वारा विभिन्न मुद्दों पर आत्म चिंतन और आत्म विश्लेषण के प्रति कोई गंभीरता नहीं दिखाई जा रही है। ऐसे में अरविंद केजरीवाल की साफ-स्वच्छ छवि और भ्रष्टाचार के खिलाफ खुली जंग छेडऩे की उनकी जद्दोजहद यह साबित करने के लिये काफी है कि यदि उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ  ठोस कदम उठाने के लिये पर्याप्त अवसर और अनुकूल परिस्थितियों की प्राप्ति हो तो वह भ्रष्टाचार के प्रभावी उन्मूलन की दिशा में काफी सफलता अर्जित कर सक ते हैं। दिल्ली के पिछले विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी ने उल्लेखनीय प्रदर्शन करते हुए 28 सीटें जीतकर तमाम बड़े राजनीतिक दलों को न सिर्फ अचंभित कर दिया था बल्कि उन्हें यह भी सोचने के लिये विवश कर दिया था कि यदि उहोंने अपनी कथनी और करनी के बीच अंतर को खत्म नहीं किया तथा देश को राजनीतिक प्रयोगशाला समझकर छल, कपट, सुविधा, दुविधा और अवसरवादिता की प्रवृत्ति को खुद से दूर करने की कोशिश नहीं की तो देश के जनता- जनार्दन उनका वजूद मिटा देंगे। अरविंद केजरीवाल को अपने राजनीतिक प्रताप की बदौलत 49 दिन तक दिल्ली के मुख्यमंत्री पद को सुशोभित करने का भी मौका मिला तथा इस दौरान उन्होंने अपने चुनावी वायदे पूरे करने तथा भ्रष्टाचार उन्मूलन की दिशा में प्रभावी कदम उठाने की भी हर संभव कोशिश की। केजरीवाल की दृढ़ इच्छाशक्ति को इसलिये भी पर्याप्त सराहना मिलनी चाहिये कि उन्होंने गैस हेराफ़ेरी को लेकर मुकेश अंबानी सहित जिम्मेदार केन्द्रीय मंत्रियों के खिलाफ एफ़आईआर दर्ज करने का आदेश देने का साहस दिखाया। भारतीय लोकतंत्र की यह विडंबना है कि देश की चुनावी प्रक्रिया भी पूंजीपतियों व राजनीतिक माफियाओं के दुष्प्रभाव से मुक्त नहीं है। देश के कार्पोरेट घराने कांग्रेस व भारतीय जनता पार्टी जैसे बड़े दलों को करोड़ों रुपये का चुनावी चंदा देते हैं फिर इन राजनीतिक पार्टियों के सत्ता में आने पर सत्ता में भी सीधा दखल रखते हुएअपने फायदे के लिये मनमाफिक फैसले कराते हैं। अरविंद केजरीवाल ने अंबानी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का आदेश देकर भ्रष्टाचार एवं राजनीतिक अराजकता के खिलाफ अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय तो दिया है,इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। हां यहां यह कहना भी अत्यंत आवश्यक है कि अरविंद केजरीवाल को पारदर्शिता व भ्रष्टचार के मुद्दे पर अपनी करनी व कथनी का भी ध्यान रखना होगा क्यों कि ईमानदारी व नैतिकता किसी भी इंसान की व्यक्तिगत पूंजी है तथा इसका दिखावा हरगिज नहीं होना चाहिये। साथ ही किसी व्यक्ति को सिर्फ ईमानदार होना ही नहीं चाहिये बल्कि उसके व्यक्तित्व व कृतित्व से ईमानदारी झलकनी भी चाहिये। केजरीवाल की विदेशी फंडिंग को लेकर काफी सवाल उठते रहते हैं। स्वयं केन्द्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे भी कुछ ऐसा ही कह चुके हैं, इसके अलावा दिल्ली में व्हीआईपी कल्चर खत्म करने तथा सरकारी बंगला लेने या नहीं लेने पर भी केजरीवाल की कथनी व करनी में काफी विरोधाभास नजर आया है।  केजरीवाल पर आरोप लगाये जाते हैं कि वह सनसनी फैलाने और चर्चा में आने के लिये किसी को भी भ्रष्ट करार दे देते हैं तथा उनके पास किसी को भी भ्रष्ट साबित करने के लिये पर्याप्त प्रमाण नहीं होते। केजरीवाल को चाहिये कि वह राजनीतिक विरोधियों पर आरोप लगाते समय अतिवाद से परहेज करें तथा वह व उनके अन्य सहयोगी भी शालीनता व शिष्टाचार की परंपरा का पालन करें। देश की राजनीति का मौजूदा दौर कुछ ऐसा ही हो गया है कि विरोधियों पर हमले बोलने व आरोप लगाते समय शालीनता व शिष्टाचार का ध्यान नहीं रखा जा रहा है, जो सभ्य-संभ्रांत जनों व जनता-जनार्दन को कतई स्वीकार्य नहीं है। भले ही राजनेताओं के लच्छेदार भाषणों, विरोधियों पर कटाछ करने वाले जुमलों तथा खुद को स्वनाम धन्य सिद्ध करने वाली अन्य बातों को सतही सोच वाले लोग पसंद करें लेकिन देश का अधिकांश जनमानस बनावटी व दिखावटी बातों की परख करना अच्छी तरह जानते हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर अरविंद केजरीवाल आगामी लोकसभा चुनाव की दृष्टि से सियासी रणनीति पर और अधिक प्रभावी तरीके से ध्यान केन्द्रित कर पायेंगे तथा उन्होंने लोकसभा चुनाव के लिये जारी उम्मीदवारों की अपनी पहली सूची में कई चर्चित चेहरों को मैदान में उतारा है, इसका उन्हें आगामी लोकसभा चुनाव की दृष्टि से फायदा होगा क्यों कि जनमानस का यह मानना है कि आम आदमी पार्टी द्वारा घोषित
उम्मीदवार जनहित के जज्बे से परिपूर्ण तथा साफ-स्वच्छ व्यक्तित्व के धनी हैं।



सांसदों के आचरण ने लोकतंत्र व संसद की गरिमा को किया कलंकित

सुधांशु द्विवेदी

लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

13 फरवरी को लोकसभा में पृथक तेलंगाना राज्य गठन संबंधी विधेयक गृहमंत्री द्वारा प्रस्तुत किये जाते समय हुआ अभूतपूर्व हंगामा और कुछ सांसदों का बेहद असंसदीय आचरण भारतीय लोकतंत्र व संसद की गरिमा पर लगा वह काला धब्बा है, जिसे धुलने में वर्षों गुजर जायेंगे। संसद में मिर्ची स्प्रे का प्रयोग करके व चाकू लहराकर भ्रष्ट व दुष्ट सांसदों ने यह सिद्ध कर दिया है कि देश में आंदोलनकारियों द्वारा आये दिन यदि उन्हें चोर, लुटेरा और अपराधी की संज्ञा दी जाती है तो वह औचित्य के दायरे से बाहर नहीं है। क्यों कि आंदोलनकारी देश के कुछ सांसदों को अपराधी, भ्रष्ट और चोर की संज्ञा देकर उनकी असलियत को ही तो बेनकाब करने की कोशिश करते हैं और सांसदों ने अपने हालिया आचरण से यह सिद्ध भी कर दिया कि जनता-जनार्दन के दुर्भायवश वह संसद सदस्य बनने में कामयाब हुए जबकि उन्हें न तो संसदीय मूल्यों व लोकतांत्रिक परंपराओं का ज्ञान है और न ही उनके अंत:करण में लोकतांत्रिक मूल्यों और मान्य परंपराओं के प्रति कोई सम्मान है। वह तो बस जन प्रतिनिधि होने का ख्वाब पूरा करने के लिये संसद सदस्य निर्वाचित होने में सफल रहे तथा अब संसद के अंदर बैठकर संसदीय मूल्यों को तार-तार कर रहे हैं। दर असल संसद में हुई इस शर्मनाक घटना का रोडमैप पहले ही तैयार कर लिया गया था जब एक तरफ तो टीआरएस सहित कांग्रेस के एक धड़े द्वारा भी पृथक तेलंगाना राज्य के संदर्भ में इस राज्य निर्माण की पैरवी संसद के अंदर पुरजोर तरीके से किये जाने की रणनीति बनाई गई थी तो वहीं दूसरी ओर जगनमोहन रेड्डी के नेतृत्व वाली वाईएसआर कांग्रेस, चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व वाली तेलगूदेशम पार्टी व कांग्रेस के एक धड़े की शुरुआती दौर से ही यह मंशा रही है कि पृथक तेलंगाना राज्य गठन संबंधी विधेयक को किसी भी परिस्थति में लोकसभा में प्रस्तुत नहीं होने दिया जायेगा। ऐसे में सांसदों द्वारा संसद के अंदर इस मुद्दे को लेकर अप्रत्याशित व असंसदीय आचरण प्रदर्शित किये जाने व आंध्रप्रदेश राज्य के सांसदों के बीच संघर्ष व टकराव की स्थिति निर्मित होने की आशंका तो पहले से ही थी लेकिन समय रहते इस संदर्भ में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया वरना क्या मजाल थी कि भारी सुरक्षा व्यवस्था वाले संसद भवन में कोई भी सांसद मिर्ची स्प्रे व चाकू लेकर प्रवेश कर जाता। सांसदों के संसद के अंदर चाकू लहराये जाने और मिर्ची स्प्रे किये जाने से तो देशवासी स्तब्ध हैं ही साथ ही इस घटना ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि संसद की सुरक्षा व्यवस्था भी भगवान भरोसे ही चल रही है। तेलंगाना राज्य को लेकर मची भारी उथल-पुथल की पृष्ठ भूमि में यह बात तो तय हो गई है कि कुछ स्वार्थी नेता पृथक राज्य गठन के मुद्दे को लेकर अपना स्वार्थ पूरा करना चाहते हैं, भले ही उनकी कुटिलता की बलिवेदी पर देश का लोकतंत्र आहुत हो जाये तथा संसदीय गरिमा का चीरहरण हो जाये, इसकी उन्हे जरा भी परवाह नहीं है। पृथक तेलंगाना राज्य के गठन का समर्थन करने वाले राजनीतिक क्षत्रपों को शायद इस बात की अक्ल नहीं है कि देश के अंदर बार-बार छोटे राज्यों का गठन होने से देश की एकता व अखंडता पर प्रतिकूल प्रभाव तो पड़ता ही है साथ ही देश के अन्य क्षेत्रों में आये दिन होने वाले पृथक राज्य गठन आंदोलनों को इससे और ज्यादा हवा मिलती है। इसके अलावा सुशासन की स्थापना एवं लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को सर्वग्राही व सर्वस्पर्शी बनाने का सिर्फ एक आधार पृथक राज्य ही नहीं है। यदि जन प्रतिनिधि व अन्य महत्वपूर्ण पदों पर आसीन लोग अपनी संवैधानिक व नैतिक जिम्मेदारियों का निर्वहन पूर्ण लगन, निष्ठा व ईमानदारी के साथ करें तो बड़े राज्यों में रहकर भी जन भावनाओं को आसानी से पूरा करते हुए लोकतंत्र व सुशासन का आलोक जन-जन तक व घर-घर तक पहुंचाया जा सकता है।

पूर्ववर्ती राजग शासनकाल में तीन राज्यों उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ व झारखंड का गठन किया गया था। इन राज्यों के गठन के बाद  कुछ नेताओं को राज्यपाल, मुख्यमंत्री व मंत्री आदि बनने का अवसर जरूर मिल गया लेकिन नये राज्यों के गठन के बाद वहां फैली अराजगकता व बदहाली का दंश लोग आज भी भुगत रहे हैं। छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के बाद वहां बढ़े नक्सलवाद ने संपूर्ण राज्य की व्यवस्था को तहस-नहस करके रख दिया है तथा पिछले वर्ष राज्य में हुए भीषण नक्सली हमले में दिग्गज कांग्रेसी नेताओं की शहादत को शदियों तक भुलाया नहीं जा सकेगा तो राज्य में अब तक सुरक्षा तंत्र से जुड़े हुए  सैकड़ों जवान नक्सली हिंसा की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति दे चुके हैं। पृथक राज्य के रूप में अस्तित्व में आने के बाद से छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार चरम पर है तो झारखंड की दुर्दशा के तमाम मामले आये दिन समाचार माध्यमों की सुर्खियां बनते रहते हैं साथ ही राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा, सिब्बू सोरेन तथा मधु कोड़ा का नाम सुनने व उनकी र्चा करने में भी लोगों को शर्मिंदगी महसूस होती है तथा राज्य की खनिज संपदा की हो रही खुली लूट राजनेताओं एवं खनिज माफियाओं के बीच अघोषित जुगलबंदी की ओर साफ तौर पर इशारा करती है। राज्य में भ्रष्ट व चोर नेता तथा माफिया खनिज संपदा और सरकारी खजाना लूटकर मालामाल होते जा रहे हैं तो राज्य का गरीब वर्ग अतिगरीब होता जा रहा है। इन विषम परिस्थतियों के बीच यह विचार किया जाना जरूरी है कि पृथक झारखंड राज्य के गठन का लाभ वहां के आम जनों को कितना मिला। उत्तराखंड राज्य के गठन के बाद से ही वहां खनिज माफियाओं, सरकारी खजाना लूटने के आदी राजनेताओं तथा बिली कंपनियों के बीच बना गठजोड़ राज्य को पतन और बदहाली के गर्त में लगातार धकेल रहा है। मूल रूप से विपुल प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इस राज्य में साधनों और संसाधनों की खुली लूट का सिलसिला वर्षों से चल रहा है फिर चाहे वह तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी का कार्यकाल रहा हो या मुख्यमंत्री के पद पर भाजपा के डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक का कब्जा रहा हो, इन सभी जिम्मेदार जनों ने राज्य में जन भावनाओं को नजर आंदाज करके सिर्फ माफियाओं को बढ़ावा देकर अपनी जेब भी भरने का ही काम किया है। राज्य की वन संपदा, जलसंसाधन एवं पर्वत मालाओं को खासी क्षति पहुंचाते हुए उद्योगपतियों को लाभान्वित करने के लिये पर्यावरणीय मानकों का भी खुलकर मखौल उड़ाया जाता रहा है, जिसका नतीजा उत्तराखंड त्रासदी के रूप में सामने आ चुका है, जिसमें जान गंवाने वाले हजारों बेगुनाह लोगों की दिवंगत आत्मा उन भ्रष्ट, निकम्मे व संवेदनहीन नेताओं को कभी माफ नहीं करेगी। उत्तराखंड राज्य के संदर्भ में भी यह बात लागू होती है कि पृथक प्रदेश के गठन के बाद वहां सिर्फ नेता और भ्रष्ट नौकरशाह ही मालामाल हुए हैं। राज्य के आम वासिंदों को पृथक राज्य बनने का शायद ही कोई लाभ मिल पाया हो। तो मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि उल्लेखित तीन राज्यों के गठन के बाद से निर्मित हुई परिस्थितियों से तेलंगाना राज्य गठन के झंडाबरदारों ने कोई सबक नहीं लिया तथा पृथक तेलंगाना राज्य गठित करने या नहीं करने के मुद्दे पर राज्य में पनपे वर्गसंघर्ष, हिंसा व अराजगकता की आग इस दक्षिणी राज्य के विभिन्न गलियारों से होती हुई संसद तक पहुंच गई। शायद सांसदों को भी इसी वक्त का इंतजार था क्यों कि उन्होंने अपने पिछले 5 वर्ष के कार्यकाल में जनहित का कोई उल्लेखनीय काम तो किया नहीं। सिर्फ अपने पद और प्रभाव का इस्तेमाल करके व्यक्तिगत हित पूरा करने और सरकारी सुख सुविधा व वेतन भत्ता लेने में ही उन्होंने अपना पूरा कार्यकाल व्यतीत किया है, फिर उन्हें लगा कि संसद के अंदर पृथक तेलंगाना राज्य के गठन की पैरवी या विरोध के नाम पर ऐसी ओछी व शर्मनाक हरकत करके वह अपनी नाकामियों पर से जनमानस का ध्यान आसानी से भटका सकने में सफल हो जायेंगे। यही सोचकर सांसदों ने संसद के अंदर मिर्ची स्पे्र करने और चाकू लहराने का शर्मनाक कृत्य कर डाला। ऐसे भ्रष्ट और दुष्ट सांसदों की न सिर्फ सदस्यता खत्म की जानी चाहिये बल्कि उन्हे पूरे कार्यकाल के लिये अयोग्य घोषित करके उन्हें अब तक मिले वेतन-भत्ते की वसूली भी उनसे की जानी चाहिये। साथ ही उनका सामाजिक बहिष्
कार करते हुए आगामी लोकसभा चुनाव में उनकी करारी हार सुनिश्चित करने का भी प्रयास होना चाहिये।