Thursday 8 May 2014

देशहित में नहीं है जातिवादी राजनीति

सुधांशु द्विवेदी

लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

राजनेताओं द्वारा विरोधियों पर जात पांत की राजनीति किये जाने की तोहमत आये दिन मढ़ी जाती रहती है लेकिन असल में यदि देखा जाये तो जातिवादी मानसिकता लगभग सभी राजनीतिक दलों में हावी है। देश को जातिवाद के भंवरजाल से मुक्त कराने के दावे और वादे भी बढ़चढक़र किये जाते हैं लेकिन विडंबना यह है कि आजादी प्राप्ति के 66 साल व्यतीत हो जाने के बावजूद राजनीतिक दल एवं नेता जातिवाद की संकीर्णता से बाहर नहीं निकल पाये हैं। चाहे देश का मौजूदा लोकसभा चुनाव हो या फिर समय-समय पर होने वाले विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनाव अथवा चाहे हम किसी भी राज्य के स्थानीय निकायों के निर्वाचन की ही बात करें। जातिवाद की संक्रामक महामारी देश की राजनीतिक तंत्र में इतनी गहराई तक समाहित हो गई है कि कोई भी राजनीतिक दल जातिवाद की राजनीति से मुक्त नहीं है। इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि देश के संविधान में सभी भारतीय नागरिकों को एक समान मानने तथा समता एवं समरसता की अवधारणा को मजबूत बनाये जाने की प्रतिबद्धता के बावजूद भारतीय समाज जातिवाद की बेडिय़ों से अभी तक जकड़ा ही हुआ है साथ ही राजनीतिक दलों की संगठनात्मक, सृजनात्मक व चुनावी गतिविधियां भी पूरी तरह जातिवाद के इर्द गिर्द ही केन्द्रित होकर रह गई हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि देश की राजनीतिक व्यवस्था में अग्रणी भूमिका निभाने वाले राजनीतिक दल एवं उनके नेताओं द्वारा देश के सभी नागरिकों के सम्मानजनक जीवन जीने के सपने एवं देश के संविधान की अवधारणा को मूर्त रूप देने में अपना योगदान किस हद तक सुनिश्चित कर पायेंगे। राजनीतिक दलों की संगठनात्मक गतिविधियों से लेकर चुनावों में टिकट वितरण तक में जातीय समीकरणों का विशेष ध्यान रखा जाता है, फिर चाहे संबंधित राजनीतिक दल पर जाति विशेष के तुष्टिकरण या उपेक्षा का ही आरोप क्यों न लगे तथा राजनीतिक दल के संगठनात्मक स्वरूप या टिकट वितरण को लेकर व्यापक जन असंतोष की स्थिति भी क्यों न निर्मित हो जाये। राजनीतिक दलों को ऐसे लोक सरोकारों से कोई विशेष वास्ता नहीं रहता तथा वह केवल राजनीतिक सफलता को ही अपना एकसूत्रीय उद्देश्य मानते हैं। यह भी एक बड़ी विडंबना है कि राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं ने चाहे जितनी राजनीतिक प्रतिष्ठा व ख्याति अर्जित कर ली हो लेकिन उनका नैतिक पक्ष दुर्बलता की चरम सीमा पर पहुंच चुका नजर आ रहा है। कम से कम वर्तमान हालात पर दृष्टिपात करने पर तो ऐसा ही प्रतीत होता है। अब उत्तरप्रदेश में सत्ताधारी समाजवादी पार्टी के नेताओं व पूर्व मुख्यमंत्री मायावती व उनकी पार्टी बहुजन समाज पार्टी की ही बात करें तो ऐसा लगता है कि बसपा प्रमुख मायावती व सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह के बीच पारस्परिक व्यक्तिगत शत्रुता की स्थिति अभी भी बरकरार है तथा वह एक दूसरे को नीचा दिखाने तथा सिर्फ राजनीतिक ही नहीं बल्कि एक दूसरे को व्यक्तिगत छति पहुंचाने के लिये हमेशा उतावले नजर आते हैं। मौजूदा लोकसभा चुनाव के दौरान दोनों के बीच राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में आगे निकलने की होड़ लगती तो उसे तर्क संगत भी माना जा सकता था लेकिन एक दूसरे के खिलाफ जिस तरह से जातिसूचक टिप्पणी करके अन्य विवादास्पद बयानों के माध्यम से भी मर्यादा की लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया जा रहा है उससे तो यही लगता है कि यह दोनों ही नेता अपनी-अपनी जातियों के हितों के झंडाबरदार बनने की कोशिश कर रहे हैं तथा उनके इन स्तरहीन प्रयासों के चलते राज्य में यदि वर्गसंघर्ष के हालात भी निर्मित हो जायें तो इन नेताओं को कोई अफसोस नहीं होगा क्यों कि उनका तो उद्देश्य ही जातीय विद्वेश को बढ़ावा देकर उसका राजनीतिक लाभ अर्जित करने का है। मायावती व मुलायम सिंह का एक दूसरे के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया तो वर्षों से रहा है तथा उनकी पारस्परिक शत्रुता व विद्वेषपूर्ण प्रवृत्ति की निरंतरता अभी भी जारी है। ऐसा लगता है कि इन नेताओं ने कालांतर में देश, काल और परस्थितियों से कोई सबक नहीं सीखा है तथा बार-बार देश के संविधान, संविधान निर्माता डॉ. अंबेडकर, समाजवादी विचारधारा के प्रेरणास्त्रोत डॉ. राम मनोहर लोहिया के व्यक्तित्व व कृतित्व का बखान करके यह सिर्फ वोट की फसल ही काटते आये हैं तथा आगे भी उनके दृष्टिकोण में कोई परिवर्तन नहीं आने वाला है। मुलायम सिंह द्वारा मायावती के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी करने की अगर विशेष रुचि देखी जाती है तो उनके भाई और उत्तरप्रदेश  की अखिलेश यादव सरकार के वरिष्ठ मंत्री शिवपाल यादव तो मुलायम से भी सौ कदम आगे हैं जो शायद सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के मकसद से मायावती पर इतनी अभद्र टिप्पणी कर रहे हैं। वहीं मायावती भी इस मामले में किसी भी परिस्थिति में पीछे नहीं हैं तथा मुलायम व उनके परिवार पर शब्द बाण चालने के लिये अपनी राजनीतिक प्रतिष्ठा व व्यक्तित्व की गरिमा का ध्यान भी नहीं रख पा रही हैं तथा मुलायम व उनके परिजनों के खिलाफ मायावती के तरकस से जो भी तीर निकलते हैं वह जातिवाद का जहर ही उगलते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं अब तो उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी अपने पिता मुलायम की ही तरह मायावती पर निशाना साध रहे हैं तथा मायावती के लिये उनके द्वारा बुआ जी के स्थान पर अब फुआ   शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है, जो यह सिद्ध करने के लिये काफी है कि राजनीतिक रुतबा हासिल कर लेने से किसी व्यक्ति के संस्कार सुदृढ़ नहीं हो जाते जब तक कि व्यक्ति खुद को संस्कारवान बनाने की कोशिश न करे। वहीं मायावती भी अब अखिलेश के लिये मुलायम के लल्ला की जगह ललुआ शब्द का इस्तेमाल कर रही हैं तथा अन्य आरोप भी लगा रही हैं , जिससे यह सिद्ध होता है कि वह राजनीतिक फायदे के लिये ही समता, समरसता और भाईचारे के नारे का इस्तेमाल किया करती हैं जबकि असल में उन्हें इस तरह के आदर्शों और सिद्धांतों से कोई खास वास्ता नहीं है। देश के राजनेता शायद यह नहीं समझ पा रहे हैं कि देश का संविधान व उसमें समाहित मुद्दों  व मूल्यों  के आलोक में ही उनके राजनीतिक एजेंडे की सार्थकता सिद्ध हो सकती है तथा तुच्छ राजनीतिक लाभ के लिये यदि उन्होंने संस्कारों व सरोकारों को तहस-नहस करने का प्रयास किया तो देश व समाज के साथ उनका यह बड़ा अन्याय माना जायेगा। जातिवाद के हथियार से वोटों की फसल काटना जितना देश व समाज के लिये घातक है, इससे उतना ही खतरा देश के राजनीतिक तंत्र व राजनीतिक दलों के लिये भी है क्यों कि फिर ऐसे ही मुद्दों के आधार पर राजनीतिक दलों को बगावत व विघटन का दंश भी झेलना पड़ता है। लेकिन शायद नेता गण धरातलीय सच्चाई को नजरअंदाज करने में ही ख्ुाद का फायदा देख रहे हैं तथा अपने तात्कालिक व राजनीतिक फायदे के लिये वह देश व समाज हित की कसौटी पर खरा नहीं उतरना चाहते।

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