Monday, 31 March 2014

क्षत्रपों की अदूरदर्शिता से कमजोर होतीं राजनीतिक संभावनाएं

सुधांशु द्विवेदी

लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

लोकसभा चुनावों के लिये मतदान की तिथियां जैसे-जैसे करीब आ रही हैं वैसे-वैसे देश के राजनीतिक जगत में सियासी घमासान भी तेज होता जा रहा है। आम चुनावों के परिपेक्ष्य में देशवासियों की कामना यही है कि चुनाव के बाद देश में लोकप्रिय और स्थिर सरकार का गठन हो ताकि व्यापक जन भावनाओं के अनुरूप देश और समाज का कायाकल्प हो सके। हालाकि चुनावी सर्वेक्षणों में आम चुनावों के बाद त्रिशंकु लोकसभा की भविष्यवाणी की जा रही है, इस स्थिति में सहमे राजनीतिक दल एवं उनके क्षत्रप और अधिक राजनीतिक जोर आजमाइस को अंजाम देते हुए नजर आ रहे हैं। इन दिनों देश के राजनीतिक दलों में कई मामलों में निर्णय क्षमता का अभाव तथा अदूरदर्शिता की झलक दिखाई दे रही है, जो स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा के विपरीत व जनमानस में हताशा पैदा करने वाली है। देश की मुख्य विपक्षी पर्टी भाजपा में पिछले एक सप्ताह के अंदर जो कुछ घटित हुआ वह पार्टी के ही कार्यकर्ताओं का उत्साह घटाने वाला है तथा लोग आश्चर्यचकित हैं। साथ ही इस घटनाक्रम से उन चुनावी सर्वेक्षणों को भी जोड़ा जा रहा है जिनमें कहा गया है कि लोकसभा चुनाव के बाद राजग भले ही सबसे बड़े गठबंधन के रूप में उभरकर सामने आये लेकिन वह बहुमत के जादुई आंकड़े से काफी दूर रहेगा। यदि लोकसभा चुनावों के बाद देश में ऐसे राजनीतिक हालात निर्मित होते हैं तो क्या इसके लिये भाजपा के अंतद्र्वंद और विरोधाभाषी निर्णय प्रक्रिया को जिम्मेदार नहीं माना जायेगा? पहले पार्टी के टिकट वितरण में पार्टी के बुजुर्ग नेताओं की उपेक्षा तथा बाद में कर्नाटक के विवादित धार्मिक नेता प्रमोद मुतालिक को भाजपा में शामिल किया जाना और फिर बवंडर मचने पर उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया जाना तथा अब जनता दल यूनाइटेड से निष्कासित नेता साबिर अली को भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता प्रदान किया जाना तथा बाद में इस मुद्दे पर भाजपा में अंदरूनी घमासान छिडऩे पर उनकी पार्टी सदस्यता रद्द किया जाना यह सिद्ध करता है कि पार्टी में नीतिगत निर्णयों के मामले में अदूरदर्शिता तो हावी है ही, वर्चस्व की लड़ाई भी थमने का नाम नहीं ले रही है। प्रमोद मुतालिक के बारे में यथा सर्वविदित है कि उनके द्वारा वर्ष 2009 में कर्नाटक में एक पब में घुसकर महिलाओं के साथ मारपीट की गई थी तथा उनका खासकर कर्नाटक के प्रबुद्ध जनमानस में काफी विरोध है, इसके बावजूद मुतालिक को समारोहपूर्वक भाजपा में शामिल किया गया। यह बात अलग है कि गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पारीकर सहित भाजपा के ही कई बड़े नेताओं द्वारा मुतालिक के भाजपा में प्रवेश का तीखा विरोध किये जाने पर उनकी सदस्यता रद्द करनी पड़ी। साबिर अली मामले में भी भाजपा के शीर्ष नेता मुख्तार अब्बास नकवी को खुलकर मुखालफत की मोर्चेबंदी करनी पड़ी तब कहीं जाकर पार्टी शाबिर से पल्ला झाड़ पाई। इस पूरे सियासी घटनाक्रम से भाजपा के लोगों को भी आश्चर्य हो रहा है क्यों कि उन्हें लगता है कि यदि देश में भाजपा व एनडीए को अपने पक्ष में लहर दिखाई दे रही है तो फिर दलबदल को बढ़ावा देने तथा दागदार चेहरों को पार्टी टिकट से नवाजने और विवादित लोगों को पार्टी में शामिल किये जाने की आवश्यकता एवं औचित्य आखिर क्या है? यह भी माना जा रहा है कि भाजपा के शीर्ष नेताओं के बीच कई मामलों में समन्वय एवं संवाद के अभाव के कारण भी ऐसी परिस्थितियां निर्मित हो रही हैं, जो कार्यकर्ताओं को हतोत्साहित करने के साथ ही जनमानस की हताशा का भी कारण बन रही हैं। हालाकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा स्पष्ट हिदायत दी गई है कि भाजपा नेतृत्व का एकमात्र लक्ष्य चुनावी विजय होना चाहिये तथा किसी भी प्रकार का असमन्वय एवं गतिरोध बर्दाश्त नहीं किया जायेगा लेकिन इसके बावजूद पार्टी में मची सियासी उठापटक के चलते संघ के माथे पर भी चिंता की लकीरें खिचना स्वाभाविक है। भाजपा से अलग यदि कांग्रेस में देखें तो यहां भी राजनीतिक कामयाबी का परचम फहराने के लिये काफी पापड़ बेलने पड़ रहे हैं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी पार्टी के अंदरूनी विवादों को लोकसभा चुनाव के बाद सुलझाने की बात कह रहे हैं जबकि पार्टी को अनुशासन, अंदरूनी लोकतंत्र तथा पार्टी के कार्यकर्ताओं को ऊर्जित व उत्साहित किये जाने की आवश्यकता अभी लोकसभा चुनाव के दौरान ही अधिक है। हां इस बात पर संतोष अवश्य व्यक्त किया जा सकता है कि राहुल गांधी पर पार्टी के बुजुर्ग एवं तपोनिष्ठ नेताओं की उपेक्षा के आरोप नहीं लग रहे हैं तथा राहुल गांधी द्वारा खुलकर यह बात कही भी जा रही है कि हम वरिष्ठ नेताओं के साथ मिल बैठकर नीतिगत निर्णय लेते हैं तथा लोकसभा टिकटों का निर्धारण भी वरिष्ठ नेताओं की सहमति से ही किया जा रहा है। कांग्रेस में प्रभावी प्रचार अभियान की आवश्यकता को जरूर बार-बार निरूपित किया जा रहा है क्यों कि पार्टी के शीर्ष नेताओं को भी लगता है कि विपक्ष के आक्रामक प्रचार अभियान का जवाब कांग्रेस की वर्षों पुरानी विचारधारा एवं मान्य परंपराओं के प्रभावी प्रचार अभियान से दिया जाना चाहिये साथ ही भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर कांग्रेस की सोच में और अधिक स्पष्टता की जरूरत है। पार्टी नेताओं को लगता है कि कांग्रेस में यदि अंतद्र्वंद व अति महत्वाकांक्षा की सियासत पार्टी की राजनीतिक राह रोकने का कारण नहीं बनी तो लोकसभा चुनाव के सियासी सफर में अभी भी बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है। 80 लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तरप्रदेश में यदि पार्टी ने अपनी खोई हुई जमीन हासिल करने में कामयाबी प्राप्त कर ली तो अन्य राज्यों में भी मतदाताओं का ध्रुवीकरण कांग्रेस के लिये निराशाजनक नहीं रहेगा। इसके विपरीत यदि गुटबाजी व व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति की मानसिकता ही चुनाव अभियान में भी हावी रही तो राहुल गांधी की उम्मीदों को झटका भी लग सकता है। देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में बड़े ही रोचक चुनावी समीकरण उभरने के आसार दिख रहे हैं। सर्वेक्षणों में कहा गया है कि राज्य की राजनीति में तेजी के साथ अपने पैर जमाने वाली आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता में काफी गिरावट आई है तथा पार्टी में हावी होती अराजकता एवं गैर जिम्मेदारीपूर्ण कार्य संस्कृति को जनता-जनार्दन ने पसंद नहीं किया है। जबकि भाजपा का वोट बैंक स्थिर रहने के साथ ही कांग्रेस के ग्राफ में भी कुछ इजाफा हुआ है। हालाकि राज्य में पार्टी की लोकसभा सीटों में बढ़ोत्तरी के आसार परिलक्षित नहीं हो रहे हैं। इस प्रकार जनमानस को उम्मीद बढ़ी है कि राज्य में मतदाताओं का हो रहा ध्रुवीकरण राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रही राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के लिये आगे चलकर स्थिर राजनीतिक नेतृत्व प्राप्त करने का आधार बनेगा। कुल मिलाकर यह स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि रीति, नीति व नीयति की स्पष्टता ही राजनीतिक दलों एवं उनके क्षत्रपों की राजनीतिक कामयाबी का श्रेष्ठ पैमाना है। इसके विपरीत यदि रीति-नीति में अस्पष्टता एवं निर्णय प्रक्रिया व प्रतिबद्धताओं में कहीं भी विरोधाभाष नजर आया तथा अकारण वर्चस्व को लेकर टकराव हुआ तो विश्वास के संकट की स्थिति में राजनीतिक दलों को जनता-जनार्दन का कोपभाजन भी बनना पड़ सकता है।

Thursday, 27 March 2014

दबंग दुनिया समाचार पत्र में प्रकाशित मेरा लेख


Wednesday, 26 March 2014

घोषणा पत्रों में किये गये वादों पर नहीं होता अमल

सुधांशु द्विवेदी

लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने आज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी सहित पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं की मौजूदगी में राजधानी दिल्ली में लोकसभा चुनाव 2014 के लिए पार्टी का घोषणापत्र जारी किया है । लोकसभा चुनाव का पांसा पलटने की दिशा में जीतोड़ कोशिश में जुटी कांग्रेस पार्टी ने लोकसभा चुनावों के लिये जारी अपने घोषणा पत्र में समाज के सभी वर्गों के हितचिंतन की झलक दिखाई है।  घोषणा पत्र में यूपीए सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते आये दिन होने वाले राजनीतिक हमलों के प्रति भी कांग्रेस नेतृत्व की गंभीरता भी साफ नजर आ रही है क्यों कि पार्टी के चुनावी घोषणा पत्र में काले धन के मुद्दे पर पार्टी का नजरिया स्पष्ट किया गया है। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में 10 साल तक आर्थिक उदारीकरण की नीति का अनुसरण करने के बाद इस चुनाव में राहुल गांधी के केन्द्रीय भूमिका में आने के बाद कांग्रेस द्वारा अब मध्य मार्गी राजनीति के तहत कल्याणकारी उपायों पर विशेष ध्यान देने की प्रतिबद्धता चुनावी घोषणा पत्र में जताई गई है। इसके साथ ही देश में बढ़ती बेरोजगारी को भी कांग्रेस पार्टी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में गंभीर मुद्दा माना है। भ्रष्टाचार से निपटने का दृढ़ संकल्प, गरीबी रेखा के नीचे और मध्य वर्ग के बीच आने वाली 70 करोड़ की आबादी के उन्नयन, महिलाओं को शक्ति सम्पन्न बनाने और राजनीति में उनके प्रतिनिधित्व को बढ़ाने का वादा कांग्रेस पार्टी के घोषणा पत्र में प्रमुखता के साथ दिखाई दे रहा है। उदारीकरण के बाद के समय में सरकारी नौकरियों में आ रही कमी को ध्यान में रखते हुए घोषणा पत्र में रोजगार सृजन पर विशेष जोर दिया गया है, जो यह सिद्ध करता है कि लोकसभा चुनावों के मद्देनजर अन्य राजनीतिक दलों की तरह कांग्रेस ने भी युवाओं एवं उनसे जुड़ी समस्याओं को समझा है। भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझ रही कांग्रेस पार्टी शायद लोकसभा चुनाव में विपक्ष को उसी की भाषा में जवाब देने की रणनीति पर काम कर रही है। यही कारण है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर विपक्ष के आक्रामक प्रचार अभियान का सामना करने के लिए कांग्रेस के घोषणा पत्र में इस समस्या से निपटने के लिए खास उपायों और साथ ही विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने के बारे में घोषणा की गई है।  यहां यह उल्लेखनीय है कि विभिन्न पक्षों के साथ हुई व्यापक चर्चा और विचार विमर्श के बाद तैयार घोषणा पत्र के मसौदे को एके एंटनी की अध्यक्षता वाली समिति की 16 मार्च को हुई बैठक में अंतिम रूप दिया गया था। साथ ही यह कहना भी महत्वपूर्ण है कि एंटनी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नीति निर्धारकों में लंबे समय से शुमार हैं तथा कांग्रेस के सहयोगी दलों की संख्या बढ़ाने की दृष्टि से गठबंधन व सीटों के तालमेल की जिम्मेदारी भी एंटनी की अध्यक्षता वाली समिति को ही सौंपी गयी है।  एंटनी के अलावा घोषणा पत्र समिति में पी चिदंबरम, सुशील कुमार शिंदे, आनंद शर्मा, सलमान खुर्शीद, संदीप दीक्षित, अजीत जोगी, रेणुका चौधरी, पीएल पूनिया, मोहन गोपाल, जयराम रमेश और दिग्विजय सिंह शामिल हैं। कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र में महंगाई के मुद्दे का उल्लेख रहने और कालाबाजारी एवं जमाखोरी को रोकने के लिए कड़े उपाय का भी जिक्र किये जाने से जनमानस में उम्मीद पैदा होना तो स्वाभाविक है लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर सत्ता में आने पर राजनीतिक दलों द्वारा अपने घोषणा पत्रों पर अमल कितना सुनिश्चित किया जाता है। यूपीए 1 के बाद यूपीए 2 को भी सत्ता संचालित करने के लिये पूरे पांच वर्ष मिले। इस दौरान दोनों कालखंडों को मिलाकर कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को लगातार 10 साल तक सत्ता में बने रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस दौरान निरंतर उजागर होने वाले घपलों-घोटालों के बीच बढ़ती महंगाई को नियंत्रित करने के प्रयासों को अंजाम न दिये जाने के कारण विपक्ष को लगातार हमलावर होने का मौका मिला। साथ ही आम जनता की बढ़ती समस्याओं और पार्टी व सरकार की निरंतर होती किरकिरी पर भी यूपीए व कांग्रेस के रणनीतिकारों ने समय रहते ध्यान नहीं दिया। यही कारण है कि भरोसे का संकट लगातार गहरा होते जाने के कारण मौजूदा लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को पराजय के भय रूपी संताप का सामना करना पड़ रहा है। कांग्रेस पार्टी के घोषणा पत्र में महिलाओं के सशक्तिकरण की प्रतिबद्धता प्रमुखता के साथ समाहित की गई है। सवाल यह उठता है कि यूपीए सरकार के कार्यकाल में महिला आरक्षण विधेयक को संसद में पारित कराने के पक्ष में व्यापक जन भावनाएं रही हैं। लेकिन यह विधेयक लंबे समय से लोकसभा में लंबित पड़ा हुआ है। विधेयक के राज्यसभा में पारित हो जाने के बाद यदि इसे लोकसभा में भी पारित कराने की दिशा में उल्लेखनीय प्रयास हुए होते तो सुखद नतीजे अवश्य सामने आते लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। कांग्रेस एवं यूपीए सरकार ने यदि महिला आरक्षण के मामले में दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय दिया होता तो संसद का संयुक्त अधिवेशन आहूत कर इस विधेयक को पारित कराया जा सकता था इसके अलावा इस संबंध में अध्यादेश जारी करना भी एक विकल्प हो सकता था। हालाकि इन सब परिस्थितियों तथा संसदीय कार्यवाही में विपक्ष का व्यवधानकारी बर्ताव भी काफी हद तक जिम्मेदार है लेकिन सत्तापक्ष होने की दृष्टि से हमलों का सामना तो कांग्रेस को ही करना पड़ेगा। कांग्रेस पार्टी के घोषणा पत्र में किसानों के हित संवर्धन का भी पूरा ख्याल रखे जाने की बात कही गई है लेकिन यह भी सच है कि मौजूदा समय में देश के किसानों की हालत बदतर है। राजनीतिक दलों द्वारा किसानों के मुद्दे को लेकर राजनीतिक पैंतरेबाजी तो की जाती है लेकिन अगर किसानों की बदहाली सुधारने तथा उन्हें आत्महत्या के लिये मजबूर होने से बचाने की दिशा में समय रहते कारगर प्रयासों को अंजाम दिया गया होता तो किसानों के चेहरे पर खुशी की लहर अवश्य दिखाई देती। हालाकि यह भी सही है कि मनरेगा, भोजन का अधिकार तथा अरटीआई कानून जैसे लोक कल्याणकारी कदमों के माध्यम से यूपीए सरकार तथा कांग्रेस ने जनता-जनार्दन के बीच अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने की पहल तो की थी लेकिन अव्यवस्था और अराजकता के माहौल में इन प्रभावशाली कदमों का आलोक वास्तविक जरूरतमंद लोगों तक अपेक्षित ढंग से नहीं पहुंच पाया। अब देखना यह होगा कि कांग्रेस अपनी इन उपलब्धियों को राजनीतिक तौर पर भुनाने में कितना सफल होती है।  उम्मीद की जाती है कि कांग्रेस को यदि एक बार पुन: केन्द्र की सत्ता में आसीन होने का सौभाग्य प्राप्त होता है तो वह जनापेक्षाओं को पूरा करने के लिये ईमानदारी पूर्ण एवं कारगर कदम उठाएगी।

Tuesday, 25 March 2014



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यदि विफ ल होते हैं तथा यदि उन्हें सुर्खियों में पर्याप्त पैमाने पर बने रहने का अवसर नहीं मिलता तो इसके लिये मीडिया नहीं बल्कि उनके प्रचार तंत्र की कमजोरी तथा उनकी पार्टी का कार्य व्यवहार जिम्मेदार है। केजरीवाल की पार्टी में चल रही उथल-पुथल तथा आये दिन होने वाली बगावत के लिये सीध्ेा तौर पर केजरीवाल व उनकी टीम के अन्य सदस्यों में स्वानुशासन का अभाव तथा हर मामले में उनकी विरोधाभाषी आचरण ही जिम्मेदार है।




Monday, 24 March 2014



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Tuesday, 18 March 2014

कांग्रेस की संभावनाओं पर भारी पड़ रहा है अंदरूनी विवाद

सुधांशु द्विवेदी

लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

देश में सत्ताधारी यूपीए गठबंधन की अगुवाई कर रही कांग्रेस पार्टी में लोकसभा चुनाव के ऐन मौके पर भी अंरूनी उठापटक एवं अनियोजित निर्णय लेने का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा है तथा पार्टी के अंरूनी झगड़े तथा विवाद भी संभावनाओं पर भारी पड़ रहे हैं। यही कारण है कि देश में चल रही सत्ता परिवर्तन की लहर को यूपीए की सत्ता में पुन: वापसी की संभावना में तब्दील करने में सफलता हासिल नहीं हो पा रही है। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा है कि वह चुनावी सर्वेक्षणों में यूपीए की पराजय की भविष्यवाणी किये जाने से चिंतित नहीं हैं। आशय स्पष्ट है कि न तो चुनावी पराजय की कोई चिंता है और न ही पराजय के माहौल को विजय की संभावना में परिवर्तित करने की कोई ठोस रणनीति या इच्छाशक्ति।  चुनावी सर्वेक्षणकारी एजेसिंयों की निष्पक्षता पर सवाल उठाकर उन्हें कोसने तथा पार्टी के मौजूदा बदतर हालात एवं अंदरूनी उथल पुथल को स्वीकारने की बजाय उन्हें नकारने का कांग्रेसी क्षत्रपों का रवैया ही मौजूदा लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की पराजय का कारण बन जाये तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा। क्यों कि खामियों या परिस्थितियों की प्रतिकूलताओं को स्वीकार करने के बाद ही उनमें सुधार की संभावना बनती है। लेकिन जब कांग्रेसी क्षत्रप कांग्रेस पार्टी व यूपीए के अंदर सब कुछ ठीकठाक चलने तथा इस गठबंधन के फिर सत्ता में वापसी की रट लगाए बैठे हैं तो फिर खामियों को दूर करने व परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाने के प्रयासों को अंजाम दिये जाने की उम्मीद भी उनसे नहीं की जा सकती। कांग्रेसी ही कांग्रेस की अवनति का कारण बनते हैं तथा पार्टी की लुटिया डूब जाये या पार्टी के पक्ष में कोई बड़ा चमत्क ार हो जाये, पार्टी क्षत्रपों के तो बस व्यक्तिगत उद्देश्य पूरे होने चाहिये। कुछ इसी तरह का माहौल कांग्र्रेसी खेमे में उत्तर से दक्षिण तथा पूरब से पश्चिम तक स्पष्ट दिखाई दे रहा है। जहां पार्टी में अंदरूनी लोकतंत्र का अभाव तथा पार्टी नेताओं की हठधर्मिता पार्टी की विचारधारा एवं रणनीति पर पूरी तरह भारी पड़ रही है। उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री जगदंबिका पाल पार्टी नेतृत्व से खफा होकर किसी दूसरे राजनीतिक दल में अपने लिये ठिकाना तलाश रहे हैं तो कांग्रेस सांसद राव इंद्रजीत सिंह पार्टी छोडक़र भाजपा की गोद में पहले ही जा बैठे हैं। मध्यप्रदेश में भिंड से कांग्रेस पार्टी के घोषित प्रत्याशी डॉ. भागीरथ प्रसाद ने भाजपा का दामन थाम लिया तथा उन्हें भिंड से भाजपा ने अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया है। पार्टी की सबसे ज्यादा किरकिरी तो छत्ताीसगढ़ में हो रही है जहां राजधानी रायपुर लोकसभा सीट से पहले छाया वर्मा को प्रत्याशी बनाया गया फिर उन्हें बदलकर सत्यनारायण शर्मा को रायपुर से लोकसभा प्रत्याशी घोषित करने की कवायद की गई तथा अब खबर है कि सत्य नरायाण शर्मा की जगह पुन: छाया वर्मा को लोकसभा प्रत्याशी घोषित किया गया है। इस राजनीतिक ड्रामे की पृष्ठभूमि में रायपुर स्थित प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में पार्टी कार्यकर्ताओं ने भारी हंगामा मचाया तथा तोडफ़ोड़ भी हुई है। ऐसे में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी या पार्टी के अन्य श्रेष्ठ रणनीतिकार कांग्रेस की विचारधारा के नाम पर अपनी वोट बैंक की जमीन को कैसे उपजाऊ बनाएंगे जब पार्टी में व्याप्त गुटबाजी व अवसरवादिता पार्टी के सभी कार्यकलापों, नीति-रणनीति व आदर्शों-सिद्धांतों पर भारी पड़ रही है। देश के 85 लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तरप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी एवं कांग्रेस की स्थिति पिछले कई वर्षों से कमोबेस एक जैसी ही है। भाजपा ने लोकसभा चुनाव तथा राज्य के आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर राज्य में खूब राजनीतिक पैंतरेबाजी की, गुजरात के पूर्व गृहमंत्री अमित शाह को उत्तरप्रदेश भेजकर वहां के माहौल में सांप्रदायिक हलचल पैदा करने तथा अयोध्या से 84 कोसी परक्रिमा निकालने तथा उसमें मोदीत्व के वसीभूत धार्मिक और राजनीतिक नेताओं की सहभागिता के चलते राज्य में सांप्रदायिक माहौल खराब होने की आशंका के मद्देनजर इस यात्रा पर रोक लगाने की गंभीरता सिर्फ  उत्तरप्रदेश की अखिलेश सरकार ने ही दिखाई। केन्द्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन के सत्ता में होने के बावजूद इस पूरे मामले में कांग्रेस नेताओं का रवैया या तो तमाशबीन का रहा या फिर उन्होंने भाजपा या संघ पर निशाना साधने के बजाय समाजवादी पार्टी व उत्तरप्रदेश की अखिलेश सरकार को कोसने में भलाई समझी। शायद यही कारण है कि अपनी धर्म निरपेक्ष छवि के बावजूद कांग्रेस पार्टी उत्तरप्रदेश में विगत कुछ माह पूर्व फैले सांप्रदायिक उन्माद के बावजूद फ्रंटफुट पर आकर कोई दायित्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन नहीं कर पाई है तथा अब लोकसभा चुनाव के अवसर पर उत्तरप्रदेश में मुख्य मुकाबला समाजवादी पार्टी तथा भारतीय जनता पार्टी में होने की संभावना दिख रही है। हां यह अवश्य कहा जा सकता है कि आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल और उनके सहयोगी अगर अराकता व उद्दंडता का रास्ता छोडक़र राजनीतिक गंभीरता का महत्व समझते हुए राज्य की सभी लोकसभा सीटों के लिये मतदान होने तक अपनी सक्रियता कायम रखने में सफल रहे तो वाराणसी सहित राज्य की कई लोकसभा सीटों में कड़ी टक्कर दे सकते हैं। कांग्रेस तो राज्य में अभी भी सुस्त ही पड़ी हुई है तथा पार्टी नेता पार्टी की भलाई में तपोन्ष्ठि सिपाही की तरह अपनी ऊर्जा खपाने के स्थान पर अपने व्यक्तिगत हितों को पूरा करने के लिये एक-दूसरे को निपटाने में ही पूरी ताकत झोंक रहे हैं। आंध्रप्रदेश के दिवंगत पूर्व मुख्यमंत्री वाईएएस राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगन मोहन रेड्डी की नाराजगी अभी भी कांग्रेस से दूर नहीं हो पाई है तथा उन्होंने ऐलान किया है कि वह लोकसभा चुनाव में केन्द्र में किसी भी गठबंधन या पार्टी के सत्ता हासिल करने की स्थिति में उसे अपना समर्थन दे देंगे। आशय स्पष्ट है कि वह के न्द्र में भाजपा के नेतृत्व में बनाने वाली सरकार को भी वाईएसआर कांग्रेस का समर्थन देने से परहेज नहीं करेंगे। यहां यह उल्लेखनीय है कि कांग्रेस के क्षत्रपों के पास जगन के साथ मिल बैठकर गिले शिकवे दूर करने तथा उन्हें किसी भी तरह अपने पाले में मिलाने का भरसक प्रयास होना चाहिये था लेकिन कांग्रेस नेतृत्व इसमें भी नाकाम रहा । कांग्रेस पार्टी के क्षत्रपों का यदि इसी प्रकार अदूरदर्शी रवैया लोकसभा चुनाव के अंत तक कायम रहा तो सत्ता परिवर्तन संबंधी सर्वेक्षण एजेंसियों की भविष्यवाणी सच भी साबित हो सकती है तथा यदि कांग्रेसी क्षत्रपों ने शेष बचे समय में भी स्थिति का संभालने की कोशिश की तो यूपीए के सत्ता में वापसी की उम्मीद पूरी भी हो सकती है।

Friday, 14 March 2014

दबंग दुनिया समाचार पत्र में प्रकाशित मेरा लेख



लोकतंत्र को अपनी जागीर नहीं समझें राजनेता

सुधांशु द्विवेदी
लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

लोकसभा चुनाव के लिये मतदान की तिथियां जैसे-जैसे करीब आती जा रही हैं नेताओं के बीच जोड़-तोड़ व राजनीतिक कसमकस भी लगातार बढ़ती जा रही है। अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने साम,दाम,दंड, भेद सभी तरीकों का बखूबी इस्तेमाल किया जा रहा है। आक्रामक भाषणों व ठोस तर्कों का तो राजनीति में इस्तेमाल किया जाना जायज माना गया है लेकिन मूल्यों व मर्यादाओं की लक्ष्मण रेखा पार करते हुए जब अपमानजनक शब्दावाली व ओछे तर्कों व जुमलों का उपयोग राजनीतिक बिरादरी के लोगों द्वारा किया जाता है तो ऐसा लगता है कि स्वार्थ और अतिमहत्वाकांक्षा की राजनीति मूल्यों और मर्यादाओं पर भारी पड़ रही है जो लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के सुखद भविष्य की दृष्टि से नुकसानदेह है। आम आदमी पार्टी के संयोजक एवं दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मीडिया को देख लेने व सत्ता में आने पर मीडिया वालों को जेल भेजने की धमकी दी है। केजरीवाल ने भले ही अपने इस बयान का खंडन कर दिया हो लेकिन खंडन-मंडन की यह सियासत सुलगते सवालों का जवाब नहीं दे सकती क्यों कि केजरीवाल अभी राजनीतिक मैदान के नये खिलाड़ी हैं तथा उन्हें भले ही इस बात की समझ नहीं हो कि लोकतंत्र राजनेताओं की जागीर नहीं है तथा मीडिया का काम अपनी तटस्थता एवं विश्वसनीयता कायम रखते हुए किसी भी परिस्थिति को जनता-जनार्दन के सामने प्रस्तुत करना है, जो लोकतंत्र को चिरस्थायी व जीवंत बनाये रखने की दृष्टि से मूल्यवान भूमिका है, ऐसे में केजरीवाल क्या कोई भी राजनेता मीडिया के दिशा निर्धारक या पथ प्रदर्शक नहीं हो सकते। केजरीवाल को यदि मीडिया के काम में पक्षपात नजर आता है तो यह मान लिया जाना चाहिये कि केजरीवाल को खुद अभी राजनीतिक परिपक्वता हासिल करने की आवश्यकता है क्यों कि एक प्रशासनिक अधिकारी से राजनेता बने केजरीवाल का राजनीतिक ग्राफ बढ़ाने में मीडिया का भी बड़ा योगदान रहा है। अब जब समय की गतिशीलता के साथ केजरीवाल व उनकी टीम के लोगों के कार्य व्यवहार में अराजकता एवं उच्छंखलता का भरपूर समावेश होता दिखाई दे रहा है तो उसे देश,समाज व लोकहितों की दृष्टि से कैसे उचित करार दिया जा सकता है। यदि केजरीवाल व उनकी टीम के अन्य सदस्यों का रवैया इसी तरह गैर जिम्मेदारी पूर्ण रहा तो समाज के हर वर्ग के बीच उनके प्रति नाराजगी बढ़ेगी।  भोड़े प्रदर्शनों, अराजक गतिविधियों तथा स्तरहीन बयानों को सहारा लेकर यदि केजरीवाल ही नहीं दूसरे राजनेता भी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरा करने का प्रयास करेंगे तो मीडिया तो क्या समाज का हर वर्ग उनके खिलाफ उठ खड़ा होगा। दिल्ली के विधानसभा चुनाव में 28 सीटें जीतने के बाद कांग्रेस की मदद से जब केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बने थे तब लोगों के अंदर उनके संदर्भ में क्रांतिकारी व व्यवस्था में बदलाव लाने वाली छवि निर्मित हुई थी तथा केजरीवाल ने जब लोकपाल के मुद्दे पर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया था तब भी जनमानस के बीच उनकी राजनीतिक शहादत की प्रशंसा भी हुई थी। लोगों को लगा था कि शायद देशहित में मुख्यमंत्री का पद कुर्बान करने वाले अरविंद केजरीवाल राष्ट्रीय राजनीति में एक सशक्त राजनीतिक विकल्प की स्थापना करेंगे तथा भविष्य में देश की राजनीतिक उनके इर्दगिर्द केन्द्रित होकर भ्रष्टाचार रहित स्वच्छ व पारदर्शी व्यवस्था का आधार बनेगी लेकिन समय की गतिशीलता के साथ केजरीवाल व उनकी टीम के अन्य लोगों में बढ़ती अनुशासनहीनता, उच्छंखलता तथा अराजकता से यह सिद्ध हो गया है कि केजरीवाल भी राजनेतताओं की भीड़ का ही एक हिस्सा हैं तथा वह व्यापक जनभावनाओं को पूरा करने में कामयाब नहीं हो पायेंगे। केजरीवाल पर मुंबई में चुनावी आचार संहिता के उल्लंघन का मामला दर्ज हुआ है। यह सबको विदित है कि नियमों का पालन नहीं करने से अनियमितता बढ़ती है, केजरीवाल भी शायद यह समझते होंगे लेकिन वह खुद नियमों का पालन न करते हुए सिर्फ अपने राजनीतिक विरोधियों से ही नियम-कानून का पाबंद होने की उम्मीद करते हैं। यदि उनकी यह मानसिकता है तो उन्हें आत्म चिंतन और आत्म विश्लेषण करना चाहिये। इससे पहले केजरीवाल ने गुजरात का दौरा किया था तब उन्हें गुजरात पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये जाने पर पुलिस की भूमिका की आलोचना हुई थी तथा जनता-जनार्दन ने भी केजरीवाल के साथ गुजरात पुलिस के इस बर्ताव को पसंद नहीं किया था लेकिन केजरीवाल के अब मुंबई पहुंचने तथा वहां उनके अलावा आप कार्यकर्ताओं द्वारा वहां यातायात नियमों का मखौल उड़ाने तथा चुनावी आचार संहिता के उल्लंघन के बाद जनमानस के मन में उनके प्रति पहले से व्याप्त सहानुभूति अब नाराजगी में बदलने लगी है। जनमानस द्वारा यह माना जाने लगा है कि सुविचारित, सुसंस्कारित तथा जवाबदेह राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना का दावा करने वाले केजरीवाल व उनकी टीम के अन्य सदस्यों के आचरण में विरोधाभाष है तथा वह अपने राजनीतिक विरोधियों की तरह ही राजनीतिक फायदे के लिये समस्त नैतिक व अनैतिक हथकंडों का सहारा ले रहे हैं। केजरीवाल के साथ डिनर की कीमत 10-20 हजार रुपये निर्धारित किये जाने की भी काफी आलोचना हो रही है। लोगों का मानना है कि फिल्मों में काम करने वाले अभिनेता भले ही अपने आर्थिक व व्यावसायिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिये रोड शो व डिनर आदि के नाम पर मोटी रकम वसूलते हों लेकिन ऐसे मामलों में नेताओं की भूमिका तो पूरी तरह जवाबदेहीपूर्ण व आम जनमानस पर केन्द्रित होनी चाहिये। अरविंद केजरीवाल खुद के मध्यम वर्ग एवं गरीब वर्ग के नेता होने का दावा करते हैं लेकिन यदि केजरीवाल के साथ डिनर में शामिल होने के लिये इन वर्गों के लोगों को 10-20 हजार रुपये चुकाने पड़ेंगे तब खुद के गरीब हितैषी होने संबंधी केजरीवाल के दावों का मजाक तो उड़ाया ही जायेगा। केजरीवाल के निकट सहयोगी कुमार विश्वास तो पहले से ही पवित्र धार्मिक प्रतीक चिन्हों, व देवी देवताओं के संबंध में अपमानजनक बातें करके आम आदमी पार्टी के लिये बदनामी तथा लोगों की नाराजगी मोल ले रहे हैं लेकिन अब केजरीवाल का भी तानाशाही रवैया सामने आने से उनके राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित होने की संभावनाएं क्षीण होती जा रही हैं। केजरीवाल को चाहिये कि वह मीडिया को बेवजह निशाना बनाने से परहेज करें तथा अपनी राजनीति
क महत्वाकांक्षाओं की पृष्ठभूमि में आत्मचिंतन और आत्मविश्लेषण करें। राजनीति की रपटीली राहों में चलकर कामयाबी हासिल करने के लिये केजरीवाल के लिये जरूरी है कि वह नियम-कायदों के पाबंद बनें तथा दूसरों को नसीहत देने से पहले आचार संहिता अर्थात आचरण संहिता का पालन सुनिश्चित करें।