Monday 31 March 2014

क्षत्रपों की अदूरदर्शिता से कमजोर होतीं राजनीतिक संभावनाएं

सुधांशु द्विवेदी

लेखक प्रखर राष्ट्रवादी चिंतक हैं

लोकसभा चुनावों के लिये मतदान की तिथियां जैसे-जैसे करीब आ रही हैं वैसे-वैसे देश के राजनीतिक जगत में सियासी घमासान भी तेज होता जा रहा है। आम चुनावों के परिपेक्ष्य में देशवासियों की कामना यही है कि चुनाव के बाद देश में लोकप्रिय और स्थिर सरकार का गठन हो ताकि व्यापक जन भावनाओं के अनुरूप देश और समाज का कायाकल्प हो सके। हालाकि चुनावी सर्वेक्षणों में आम चुनावों के बाद त्रिशंकु लोकसभा की भविष्यवाणी की जा रही है, इस स्थिति में सहमे राजनीतिक दल एवं उनके क्षत्रप और अधिक राजनीतिक जोर आजमाइस को अंजाम देते हुए नजर आ रहे हैं। इन दिनों देश के राजनीतिक दलों में कई मामलों में निर्णय क्षमता का अभाव तथा अदूरदर्शिता की झलक दिखाई दे रही है, जो स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा के विपरीत व जनमानस में हताशा पैदा करने वाली है। देश की मुख्य विपक्षी पर्टी भाजपा में पिछले एक सप्ताह के अंदर जो कुछ घटित हुआ वह पार्टी के ही कार्यकर्ताओं का उत्साह घटाने वाला है तथा लोग आश्चर्यचकित हैं। साथ ही इस घटनाक्रम से उन चुनावी सर्वेक्षणों को भी जोड़ा जा रहा है जिनमें कहा गया है कि लोकसभा चुनाव के बाद राजग भले ही सबसे बड़े गठबंधन के रूप में उभरकर सामने आये लेकिन वह बहुमत के जादुई आंकड़े से काफी दूर रहेगा। यदि लोकसभा चुनावों के बाद देश में ऐसे राजनीतिक हालात निर्मित होते हैं तो क्या इसके लिये भाजपा के अंतद्र्वंद और विरोधाभाषी निर्णय प्रक्रिया को जिम्मेदार नहीं माना जायेगा? पहले पार्टी के टिकट वितरण में पार्टी के बुजुर्ग नेताओं की उपेक्षा तथा बाद में कर्नाटक के विवादित धार्मिक नेता प्रमोद मुतालिक को भाजपा में शामिल किया जाना और फिर बवंडर मचने पर उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया जाना तथा अब जनता दल यूनाइटेड से निष्कासित नेता साबिर अली को भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता प्रदान किया जाना तथा बाद में इस मुद्दे पर भाजपा में अंदरूनी घमासान छिडऩे पर उनकी पार्टी सदस्यता रद्द किया जाना यह सिद्ध करता है कि पार्टी में नीतिगत निर्णयों के मामले में अदूरदर्शिता तो हावी है ही, वर्चस्व की लड़ाई भी थमने का नाम नहीं ले रही है। प्रमोद मुतालिक के बारे में यथा सर्वविदित है कि उनके द्वारा वर्ष 2009 में कर्नाटक में एक पब में घुसकर महिलाओं के साथ मारपीट की गई थी तथा उनका खासकर कर्नाटक के प्रबुद्ध जनमानस में काफी विरोध है, इसके बावजूद मुतालिक को समारोहपूर्वक भाजपा में शामिल किया गया। यह बात अलग है कि गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पारीकर सहित भाजपा के ही कई बड़े नेताओं द्वारा मुतालिक के भाजपा में प्रवेश का तीखा विरोध किये जाने पर उनकी सदस्यता रद्द करनी पड़ी। साबिर अली मामले में भी भाजपा के शीर्ष नेता मुख्तार अब्बास नकवी को खुलकर मुखालफत की मोर्चेबंदी करनी पड़ी तब कहीं जाकर पार्टी शाबिर से पल्ला झाड़ पाई। इस पूरे सियासी घटनाक्रम से भाजपा के लोगों को भी आश्चर्य हो रहा है क्यों कि उन्हें लगता है कि यदि देश में भाजपा व एनडीए को अपने पक्ष में लहर दिखाई दे रही है तो फिर दलबदल को बढ़ावा देने तथा दागदार चेहरों को पार्टी टिकट से नवाजने और विवादित लोगों को पार्टी में शामिल किये जाने की आवश्यकता एवं औचित्य आखिर क्या है? यह भी माना जा रहा है कि भाजपा के शीर्ष नेताओं के बीच कई मामलों में समन्वय एवं संवाद के अभाव के कारण भी ऐसी परिस्थितियां निर्मित हो रही हैं, जो कार्यकर्ताओं को हतोत्साहित करने के साथ ही जनमानस की हताशा का भी कारण बन रही हैं। हालाकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा स्पष्ट हिदायत दी गई है कि भाजपा नेतृत्व का एकमात्र लक्ष्य चुनावी विजय होना चाहिये तथा किसी भी प्रकार का असमन्वय एवं गतिरोध बर्दाश्त नहीं किया जायेगा लेकिन इसके बावजूद पार्टी में मची सियासी उठापटक के चलते संघ के माथे पर भी चिंता की लकीरें खिचना स्वाभाविक है। भाजपा से अलग यदि कांग्रेस में देखें तो यहां भी राजनीतिक कामयाबी का परचम फहराने के लिये काफी पापड़ बेलने पड़ रहे हैं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी पार्टी के अंदरूनी विवादों को लोकसभा चुनाव के बाद सुलझाने की बात कह रहे हैं जबकि पार्टी को अनुशासन, अंदरूनी लोकतंत्र तथा पार्टी के कार्यकर्ताओं को ऊर्जित व उत्साहित किये जाने की आवश्यकता अभी लोकसभा चुनाव के दौरान ही अधिक है। हां इस बात पर संतोष अवश्य व्यक्त किया जा सकता है कि राहुल गांधी पर पार्टी के बुजुर्ग एवं तपोनिष्ठ नेताओं की उपेक्षा के आरोप नहीं लग रहे हैं तथा राहुल गांधी द्वारा खुलकर यह बात कही भी जा रही है कि हम वरिष्ठ नेताओं के साथ मिल बैठकर नीतिगत निर्णय लेते हैं तथा लोकसभा टिकटों का निर्धारण भी वरिष्ठ नेताओं की सहमति से ही किया जा रहा है। कांग्रेस में प्रभावी प्रचार अभियान की आवश्यकता को जरूर बार-बार निरूपित किया जा रहा है क्यों कि पार्टी के शीर्ष नेताओं को भी लगता है कि विपक्ष के आक्रामक प्रचार अभियान का जवाब कांग्रेस की वर्षों पुरानी विचारधारा एवं मान्य परंपराओं के प्रभावी प्रचार अभियान से दिया जाना चाहिये साथ ही भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर कांग्रेस की सोच में और अधिक स्पष्टता की जरूरत है। पार्टी नेताओं को लगता है कि कांग्रेस में यदि अंतद्र्वंद व अति महत्वाकांक्षा की सियासत पार्टी की राजनीतिक राह रोकने का कारण नहीं बनी तो लोकसभा चुनाव के सियासी सफर में अभी भी बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है। 80 लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तरप्रदेश में यदि पार्टी ने अपनी खोई हुई जमीन हासिल करने में कामयाबी प्राप्त कर ली तो अन्य राज्यों में भी मतदाताओं का ध्रुवीकरण कांग्रेस के लिये निराशाजनक नहीं रहेगा। इसके विपरीत यदि गुटबाजी व व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति की मानसिकता ही चुनाव अभियान में भी हावी रही तो राहुल गांधी की उम्मीदों को झटका भी लग सकता है। देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में बड़े ही रोचक चुनावी समीकरण उभरने के आसार दिख रहे हैं। सर्वेक्षणों में कहा गया है कि राज्य की राजनीति में तेजी के साथ अपने पैर जमाने वाली आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता में काफी गिरावट आई है तथा पार्टी में हावी होती अराजकता एवं गैर जिम्मेदारीपूर्ण कार्य संस्कृति को जनता-जनार्दन ने पसंद नहीं किया है। जबकि भाजपा का वोट बैंक स्थिर रहने के साथ ही कांग्रेस के ग्राफ में भी कुछ इजाफा हुआ है। हालाकि राज्य में पार्टी की लोकसभा सीटों में बढ़ोत्तरी के आसार परिलक्षित नहीं हो रहे हैं। इस प्रकार जनमानस को उम्मीद बढ़ी है कि राज्य में मतदाताओं का हो रहा ध्रुवीकरण राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रही राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के लिये आगे चलकर स्थिर राजनीतिक नेतृत्व प्राप्त करने का आधार बनेगा। कुल मिलाकर यह स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि रीति, नीति व नीयति की स्पष्टता ही राजनीतिक दलों एवं उनके क्षत्रपों की राजनीतिक कामयाबी का श्रेष्ठ पैमाना है। इसके विपरीत यदि रीति-नीति में अस्पष्टता एवं निर्णय प्रक्रिया व प्रतिबद्धताओं में कहीं भी विरोधाभाष नजर आया तथा अकारण वर्चस्व को लेकर टकराव हुआ तो विश्वास के संकट की स्थिति में राजनीतिक दलों को जनता-जनार्दन का कोपभाजन भी बनना पड़ सकता है।

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