Friday 10 August 2012

पराक्रम और न्याय प्रियता के  पर्याय श्री कृष्ण
जन्माष्टमी का पवन पर्व भारतीय संस्कृति की पुरातन परंपरा पर आधारित है. आज देश में मची उथल पुथल के बीच श्री कृष्ण का फिर जन्म लेना जरुरी है. जहाँ कंशों . शिशुपालों और जरासंधों की फ़ौज कड़ी है. आज हर देश वाशी को श्री कृष्ण जैसा पराक्रम और न्याय प्रियता का प्रदर्शन करने की जरुरत है.भागवत महापुराण के दशम स्कंध में भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के विषय में उल्लेख मिलता है- "जब परम शोभायमान और सर्वगुण संपन्न घड़ी आई, चंद्रमा रोहिणी नक्षत्र में आया। आकाश निर्मल तथा दिशाएं स्वच्छ हुई, महात्माओं के मन प्रसन्न हुए, तब भाद्रपद मास की कृष्णपक्ष अष्टमी की मघ्य रात्रि में चतुर्भुज नारायण वासुदेव-देवकी के समक्ष बालक के रू प में प्रकट हुए।" अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद मास कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि में रोहिणी नक्षत्र में हुआ।
इसी स्कंघ के अनुसार गर्गाचार्य ने इनका नामकरण संस्कार करते हुए इनका नाम "कृष्ण" रखा और कहा- "इस बालक के नामाक्षर बड़े अच्छे हैं, पांच ग्रह उच्च क्षेत्र में है। मात्र राहु ही बुरे स्थान में है। गर्गाचार्य ने बताया कि जिसके सप्तम स्थान में नीच का राहु होता है, वह पुरूष कई çस्त्रयों का स्वामी होता है।
श्रीकृष्ण सोलह कलाओं में प्रवीण थे। इन्होंने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया और महाभारत के युद्ध में पाण्डवों को विजय दिलाई। आइए इनकी जन्म कुंडली के माघ्यम से यह जानें कि किन योगों के कारण यह सोलह कलाओं में प्रवीण बनें।
भगवान श्रीकृष्ण की कुंडली में उच्च का चंद्रमा लग्न में "मृदंग योग" बना रहा है। इस योग के परिणाम स्वरू प ही कृष्ण शासनाधिकारी बने। सात राशियों में समस्त ग्रह "वीणा योग" का निर्माण कर रहे हैं। इस योग की वजह से ही कृष्ण गीत, नृत्य, संगीत में प्रवीण बनें। इसी के माघ्यम से महारास जैसा आयोजन सम्पन्न कराया। कुंडली में "पर्वत योग" इन्हें यशस्वी व तेजस्वी बना रहे हैं, तो उच्च के लग्नेश व भाग्येश ने "लक्ष्मी योग" बनाकर धनी व पराक्रमी बनाया। बुध अस्त होकर भी यदि उच्च का हो तो "विशिष्ट योग" बनता है। ये योग इन्हें कूटनीतिज्ञ व विद्वान बना रहा है। बलवान लग्नेश व मकर राशि का मंगल "यशस्वी योग" बनाकर युगयुगांतर तक इन्हें आदरणीय व पूजनीय बना रहे हैं। वहीं सूर्य से दूसरा ग्रह बुध व बुध से एकादश चंद्र या गुरू हो, तो "भास्कर योग" का निर्माण होता है। यह योग ही श्रीकृष्ण को पराक्रमी, भगवान के तुल्य सम्मान शास्त्रार्थी, धीर और समर्थ बना रहे हैं। इसके अलावा कई अन्य महžवपूर्ण योग इनकी कुंडली में हैं। ऋणात्मक प्रभावकारी "ग्रहण योग" ने इनके जीवन में कलंक भी लगाया। इस योग के प्रभाव स्वरूप ही कृष्ण ने अपने मामा का वध कर बुरा कार्य किया, तो स्यमंतक मणि के चोरी का झूठे कलंक का सामना भी इन्हें करना पड़ा। ग्रहों की स्थिति का आकलन करें, तो उच्च के लग्नेश लग्न भाव में निरोग व दीर्धायु [युग-युगांतर तक याद किए जा रहे हैं] बना रहे हैं। द्वितीयेश बुध पंचम भाव में प्रसिद्धि दिलाते हैं, लेकिन आखिरी समय में परेशानी भी देते हैं। इनके सामने ही इनके समस्त कुल का नाश हुआ। तृतीयेश चंद्रमा लग्न में केतु के साथ होने से स्वजनों से दूर रखते हैं। इनका अधिकांश समय घर से बाहर व युद्ध क्षेत्र में ही बीता था। चतुर्थेश या सुखेश स्वग्रही सूर्य मातृ भूमि से दूर रखते हैं। परिणाम स्वरूप जन्म होते ही श्रीकृष्ण को अपनी जन्मस्थली से दूर ले जाया गया व आजीवन उस जगह नहीं आ पाए। पंचमेश यदि पंचम भाव में हो तो सच्चरित्र पुत्रों का पिता, चतुर व विद्वान बनाते हैं, चतुराई में तो भगवान श्रीकृष्ण की कहीं कोई सानी ही नहीं है। षष्ठेश शुक्र छठे भाव में शत्रुहत्ता, योगीराज व अरिष्ट नाशक बनाते हैं। सप्तमेश नवम भाव में उच्च के मंगल स्त्री सुख में परिपूर्ण व रमणियों के साथ रमण करने वाला बनाते हैं। इनके आठ रानियां- रूक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती, सत्या, कालिंदी, भद्रा, मित्रबिन्दा व लक्ष्मणा थीं। साथ ही राहु सप्तम में होने से नरकासुर के चंगुल से छुड़ाई 16000 राजकुमारियों ने भी इन्हें ही अपना पति माना। अष्टमेश सहज भाव में सहोदर रहित करते हैं। इनके कोई भी सहोदर जीवित नहीं बचा। बलराम से इनके सामान्य संबंध थे। भाग्येश शनि के छठे भाव में उच्च का होकर भी इन्हें रणछोड़दास बनाया। वहीं दशमेश छठे भाव में जाकर आजीवन शत्रुओं द्वारा परेशान कराते रहे। बाल्यावस्था भी तकलीफ में गुजारी, एकादशेश गुरू जहां लक्ष्मीवान व सुखी कर रहे हैं, तो व्ययेश उच्च के मंगल में दान की प्रेरणा व लंबी-लंबी यात्राएं इन्हें आजीवन  कराते रहें।
ऎसे योगेश्वर कृष्ण की आराधना हमें नित्य प्रति करने से लाभ होता है। जहां इनका पूजन होता है, वहां समृद्धि, सुख व समस्त वैभव मौजूद रहते हैं।
कृष्ण जन्माष्टमी की सब को हार्दिक शुभ कामनाएं.

No comments:

Post a Comment