Saturday 11 August 2012

बाग़ को लूटे माली घर को लूट रहा रखवाला

यह कैसा वक्त है काला

देश में मौजूदा समय में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा बन गया है. विभिन्न पक्षों द्वारा इस मुद्दे को समय समय पर उठाया भी जाता है लेकिन उनके इन प्रयासों का कोई सार्थक नतीजा सामने नहीं आ रहा है. इसका सबसे बड़ा कारन यह है कि भ्रष्टाचार का विरोध करने की उनकी सोच ही विरोधाभाषी है. कई बार तो खुद सवालों से घिरे लोग भी इस मुद्दे पर दूसरों पर ऑंखें तरेरने लगते हैं. जब कि उन्हें आत्म चिंतन और आत्म विश्लेषण करने की जरुरत है. क्यों कि पापी को पत्थर वही मार सकता है जो कभी पाप न किया हो. लेकिन देश में भ्रष्टाचार का विरोध करने के जो भी तरीके अपनाये जा रहे हैं या आन्दोलन किये जा रहे हैं वह नैतिक उद्देश्य से नहीं बल्कि राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित हैं. यही कारण है कि आन्दोलन में निहित जन भावनाओं की जन्म लेने से पहले ही भ्रूण हत्या हो जाती है. राजनीतिग्य समाज के कई मायनों में पथ प्रदर्शक होते हैं लेकिन जब कतिपय राजनीतिग्य ही विदूषक की भूमिका निभाने लगें तो फिर लोकतंत्र और जन भावनाओं का तहस नहस होना स्वाभाविक है. अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के मंत्री शिवपाल यादव ने आर्थिक कदाचार को बदहवा देने वाला एक बयान दिया हलाकि बाद में विवाद बढ़ने पर उन्होंने अपने ही बयान का खंडन कर दिया. अफसरों को चोरे करने के लिए उकसाने वाले अपने बयान को शिवपाल ने भले ही वापस ले लिया हो लेकिन इससे उनके जैसे नेताओं की मानसिकता का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है. जब सत्ता के शिखर पर बैठा एक मंत्री भ्रष्टाचर को बदहवा देने वाला ऐसा बयान देगा तो फिर व्यवस्था का तो भगवान् ही मालिक है. उत्तर प्रदेश के लोगों ने बड़ी उम्मीद के साथ समाजवादी पार्टी को सत्ता सौंपी थी लेकिन शायद शिवपाल जैसे मंत्री ही प्रदेश सरकार के फिसड्डी  होने की मुख्य वजह हैं.

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